tag:blogger.com,1999:blog-1964031493133700212024-02-21T00:18:03.040-08:00An Optimist's DiaryThe heart has its reasons of which reason knows nothing. - Blaise PascalPuneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.comBlogger127125tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-33092802567536780382017-05-18T17:21:00.001-07:002023-11-17T17:14:27.323-08:00पहचान न पाया मैं तुमको <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(<a href="https://www.youtube.com/watch?v=bTcwhHj26mk" target="_blank"><strong>सुनिए यहाँ पर</strong></a>)<br />
<br />
<strong>वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसः <span style="font-family: "mangal";">परस्तात्</span>। </strong><br />
<strong>तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।। (यजुर्वेद ३१.१८)</strong><br />
<span style="color: #999999;">[उस सूर्य समान तेजस्वी और अंधकाररूपी अज्ञान से परे महान् पुरुष (परमात्मा) को मैनें जान लिया है जिसे जानकर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इससे भिन्न कोई मार्ग ही नहीं है]</span><br />
<strong></strong><br />
सेमल को लाल-लाल सुमन मिले हैं कहाँ से, पीले-पीले ये पुष्प किसने दिए बबूलों को,<br />
तुली तूलिकायें ले ले के सजाता है कौन, सुललित लतिका के कलित दुकूलों को।<br />
'हरिऔध' किसके सजायें ये कलिकायें खिलीं, दे दे दान मंजुल मरंद अनुकूलों को, <br />
ये रंगीन साड़ियाँ तितलियों को कहाँ से मिलीं, कौन रँगरेज रंगता है इन फूलों को। <br />
<span style="color: #cccccc;">(अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध" रचित उपर्युक्त ४ पंक्तियाँ)</span><br />
<br />
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको। <br />
<br />फिरा भटकता गिरि, गह्वर में, नगर नगर में, डगर डगर में,<br />
भाटन में, वाटन में, घाटन में, वीतिन में, वृक्षन में, वेलन में,<br />
वाटिका में, वन में, घरन में, दिवारन में, देहरी दरेचन में,<br />
हीरन में, हारन में, भूषण में, तन में,<br />
कानन में, कुंजन में, गोधन, गोपालन में, <br />
गोवन में, गावन में, दामिनी में, घन में, <br />
जित देखूं तित मोहे प्रभु ही दिखाई देत,<br />
प्रभु मेरे छाये रहो नैनन में मन में।<br />
<br />फिरा भटकता गिरि, गह्वर में, नगर नगर में, डगर डगर में<br />
किन्तु पास मेरे तुम हरदम, मैं अब तक भी जान न पाया मैं तुमको <br />
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको। <br />
<br />
रवि-शशि से पदार्थ चमकाये, अन्न-औषध फल-फूल उगाये<br />
विविध रंगों के फूल लगते भवीले, कैसे अलबेली प्रकृति न टिकी हर साड़ी पे<br />
ज्ञानचक्षु खोल प्रभु महिमा अपार देखो, है न सारे कौतुक ये चेतन अनाड़ी को<br />
बिना घड़ीसाज के न बनती प्रकाश घड़ी, चालक बिना न चलते हैं चक्र गाडी के<br />
बिना वृक्ष बीज बिना तिल कब तेल होता, है न सारे कौतुक ये चेतन खिलाड़ी के।<br />
<br />
रवि-शशि से पदार्थ चमकाये, अन्न-औषध फल-फूल उगाये<br />
तुम समान इस जग में कोई दाता दयानिधान न पाया मैं तुमको <br />
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।<br />
<br />
जल से धोया मल मल कर तन, धोया नहीं कभी कलुषित मन।<br />
<br />
<strong>अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुद्धयति। </strong><br />
<strong>विद्यातपोभ्याम भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति।। (मनुस्मृति ५.१०९) </strong><br />
<span style="color: #999999; font-size: x-small;"><span style="font-size: small;">[शरीर जल से, मन सत्य से, जीवात्मा विद्या व तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है]</span></span><br />
<br />
मन सा न जग में प्रकाश कोई सच्चा मित्र, मन सा न और कोई शत्रु हुड़दंगा है,<br />
मन से ही रीत प्रीत, मन से ही शान्ति गीत, मन से ही कलह कपट द्वेष दंगा है<br />
मन ही मिलाता ईश, मन ही दिलाता मुक्ति, मन ही तो डालता सुकर्म में अड़ंगा है<br />
मन है मरीज तो लजीज कोई चीज नहीं, मन यदि चंगा तो कठौती में ही गंगा है।<br />
<br />
जल से धोया मल मल कर तन, धोया नहीं कभी कलुषित मन<br />
धुल जाते त्रयताप ज्ञान की गंग में कर स्नान न पाया मैं तुमको <br />
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।<br />
<br />
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता पत्ता।<br />
<span class="st"></span><br />
<span class="st"><strong>ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् </strong><strong>।</strong><strong> </strong></span><br />
<span class="st"><strong>तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम ।</strong><strong>। (यजुर्वेद ४०.१)</strong></span><br />
<span style="color: #999999; font-size: x-small;"><span style="font-size: small;">[इस जगत में सब कुछ ईश्वरमय है, अपने पालन के लिए इसका उपभोग बिना लोभ और आसक्ति से करें]</span></span><br />
<br />
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता पत्ता<br />
शिशु की बोली में, कोकिल की मधुर कूकों में,<br />
प्रेमी पपीहा की पीपी मयूर हूकों में,<br />
शैल शिखरों में, गगन के विशाल आँगन में,<br />
सिंधु सरिता में, सरोवर में, नगर में, वन में,<br />
नम्र शर्मीले नयन में, पवित्र यौवन में, <br />
हीर प्रणवीर में, दुखिया मजूर निर्धन में,<br />
समा रहा है और मुस्कुरा रहा है जो<br />
नाच सबको ही नित नये नचा रहा है जो<br />
जिसने पानी से भरा है रुहीसी बदरी को<br />
दे दी है जिसने चपलता वाह चमके बिजली को<br />
ईख को दी मिठास और खटास इमली को<br />
रंग दिया है जिसने फूलों को और तितली को<br />
पत्ते पत्ते की न्यारी न्यारी ये कतरन कैसी<br />
हाँथ में जिसने अपने ली नहीं कभी कैंची<br />
रीछ के तन में किया फिट क्या बालों का चोंगा<br />
उम्र भर जो न फटेगा और न छोटा होगा<br />
सिर्फ कुक्कुट के रखा लाल ये मुकुट जिसने<br />
किया लघु बीज से पैदा विशाल वट जिसने<br />
सीप कैसी चमकती आँख बनायी कैसे<br />
बीच में रख दी है तबले जैसी स्याही कैसी<br />
साथ ही इसको वो प्रकाश भी प्रदान किया<br />
दिखाई छोटे से एक तिल में आसमान दिया<br />
जान भी डाल दी इस पञ्चतत्व पुतली में<br />
एक कौड़ी भी न ली इस दया के बदले में<br />
नाम को भी जिसने जलाया न, मशाल, दिया<br />
अँधेरे घर में बैठ वाह क्या कमाल किया<br />
जन्म से पहले ये कौतुक ही बेमिसाल किया<br />
दूध बच्चे की माँ के उर में जिसने डाल दिया<br />
सबको करनी का यथायोग्य जो फल देता है<br />
सदा निष्पक्ष न रिश्वत किसी से लेता है<br />
एकरस है जो जन्मता न मरा करता है<br />
सदा कल्याण का झरना जो झरा करता है<br />
सूखी खेती को जो पल भर में हरा करता है<br />
कीड़ कुञ्जर सभी का पेट भरा करता है<br />
विश्व का चक्र ये जिसके नियम में चलता है<br />
भोर उगता है सूरज सांझ समय ढलता है<br />
पवन बहता है ये पावक प्रचंड जलता है<br />
सिंधु भी देख लो मर्यादा से न टलता है<br />
जिसकी सत्ता के बिना पत्ता तक न हिलता है<br />
जिसकी सत्ता के बिना फूल भी न खिलता है<br />
सारे ब्रह्माण्ड को जो आप किये धारण है<br />
जो कि त्रयताप हरण और तरण-तारण है<br />
जिसका सुमिरन ही सभी विघ्न भय निवारण है<br />
भूल जाना ही जिसे सब दुखों का कारण है<br />
जिसके आगे किसी स्वर्ग बहार कुछ भी नहीं<br />
चक्रवर्ती स्वराज नेहसार कुछ भी नहीं<br />
जिसके आगे कुबेर धन अपार कुछ भी नहीं<br />
जिसके आगे किसी सुंदर का प्यार कुछ भी नहीं<br />
आग चकमक में है जैसे हवा गगन में है,<br />
लाली मेहंदी के पाक में, महक सुमन में है,<br />
जैसे मक्खन दही में, पुतली ज्यों नयन में है,<br />
वैसे ही वो प्रकाश प्राणियों के मन में है।<br />
<br />
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता-पत्ता<br />
पाया पता प्रकाश तुम्हारा, तो फिर अपना पता न पाया मैं तुमको <br />
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।।<br />
<br />
~~~~ </div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-88503222600436085942014-12-08T09:02:00.000-08:002014-12-08T09:05:16.902-08:00गीता जयंती<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
श्री गीता जयंती जी के इस पुण्य अवसर पर.…<br />
<br />
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान कहते हैं.…<br />
<strong></strong><br />
<b>यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।</b><br />
<b>तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥</b><br />
<br />
जो मुझे सर्वत्र देखता है (अर्थात हर एक कण में मेरे व्याप्त होने के रहस्य को जानता है) और मुझमें समस्त सृष्टि को देखता है(अर्थात यह जानता है कि सम्पूर्ण सृष्टि मुझमें स्थित है), मैं उसकी दृष्टि से दूर नहीं होता और न ही वह मेरी दृष्टि से दूर होता है।<br />
<br />
यही ज्ञान मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम माता शबरी को नवधा भक्ति के रूप में देते हैं और कहते हैं कि भक्ति का सातवाँ प्रकार सारे जगत को राममय देखने में है .…<br />
<br />
<strong>सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।। </strong>(अरण्यकाण्ड)<br />
<br />
भौतिक जीवन में यह करने में जब कठिन हो जाता है, इन प्रभु ज्ञान पंक्तियों को जो लोग मन में रखते हैं, भगवान उनका पग पग पर मार्ग दर्शन करते रहते हैं। जब आपका विश्वास भगवान पर और दृढ एवं अटल हो जाएगा, तब आप स्वयं ही निर्भय हो जाएंगे।<br />
</div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-83024166282350826162014-11-25T09:32:00.002-08:002014-11-25T10:29:33.580-08:00प्रभु लीला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्रभु श्री राम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं। श्री भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के दूसरे अध्याय में यह स्पष्ट है कि त्रिगुणी प्रकृति से इस संसार की स्थिति, उत्पति और प्रलय के लिए यही ब्रह्म (परमात्मा) ही विष्णु, ब्रह्मा और रूद्र रूप ग्रहण करते हैं। इसलिए श्रीराम को बस अवतार न समझ कर उन प्रभु में निर्गुण ब्रह्म को ही देखिए और भक्ति को उस ब्रह्म के साक्षात्कार का साधन। <br />
<br />
आगे लिखा है कि धर्म के ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि ह्रदय में भगवान की लीला-कथाओं में अनुराग का उदय न हो, तो वह निरा कर्म ही है। <em>आतम ज्ञान बिना नर भटके, कभी मथुरा, कभी काशी। </em> परमात्मा आपके ह्रदय में ही हैं। सच्ची भक्ति वही है जिससे ज्ञान और वैराग्य का उदय हो। ज्ञान भगवान को तत्व से जानने को कहते हैं और वैराग्य आसक्ति के हटने को। तत्व से जानना अर्थात उनकी कृपा को बहुत कृतज्ञता से देखना और इस जीवन को अंत न समझ लेना। जीवन के कर्म करते हुए भी फल में आसक्ति का न होना। जो प्रभु दें, उसको सहर्ष स्वीकार करना। मोह ही अज्ञान है। <em>मोह सकल ब्याधिन के मूला, तिन्हते पुनि उपजहिं बहु सूला। </em>इसलिए भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से प्रभु में विश्वास अधिक दृढ होना चाहिए। <br />
<br />
तुलसीदास जी उनकी लीला का सुन्दर वर्णन करते हैं...<br />
<strong></strong><br />
<strong>प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान। </strong><br />
<strong>
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।। </strong>(बालकाण्ड दो० २००)<br />
प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं।।<br />
<br />
<div class="main_heading2">
<strong>एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।<br />निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया।।</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।<br />बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा।।</div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।<br />बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
माता भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर) पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता।। </div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।</strong><br />
<strong>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
(वह सोचने लगी कि) यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए।। </div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।</strong><br />
<strong>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।। (बालकाण्ड दो० २०१) </strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं।।</div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="main_heading2">
</div>
<div class="slok">
<strong>अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।</strong><br />
<strong>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे।। </div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।</strong><br />
<strong>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है।।</div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।</strong><br />
<strong>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
(माता का) शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए।।</div>
</div>
<div class="slok_bg">
<div class="slok">
</div>
<div class="slok">
<strong>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।</strong><br />
<strong>हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।</strong></div>
<div class="arth_pad kreative">
(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं।।</div>
</div>
</div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-44539271719532781502014-11-25T09:00:00.000-08:002014-11-25T09:01:15.826-08:00नर हो, न निराश करो मन को<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मैथिली शरण गुप्त जी की सुन्दर पंक्तियाँ...<br />
<strong></strong><br />
<strong>नर हो, न निराश करो मन को</strong><br />
कुछ काम करो, कुछ काम करो<br />
जग में रह कर कुछ नाम करो<br />
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो<br />
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो<br />
कुछ तो उपयुक्त करो तन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को ।<br />
<br />
संभलो कि सुयोग न जाय चला<br />
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला<br />
समझो जग को न निरा सपना<br />
पथ आप प्रशस्त करो अपना<br />
अखिलेश्वर है अवलम्बन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को<br />
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ<br />
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ<br />
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो<br />
उठके अमरत्व विधान करो<br />
दवरूप रहो भव कानन को<br />
नर हो न निराश करो मन को ।<br />
<br />
निज गौरव का नित ज्ञान रहे<br />
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे<br />
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे<br />
सब जाय अभी पर मान रहे<br />
कुछ हो न तज़ो निज साधन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को ।<br />
<br />
प्रभु ने तुमको दान किए<br />
सब वांछित वस्तु विधान किए<br />
तुम प्राप्त करो उनको न अहो<br />
फिर है यह किसका दोष कहो<br />
समझो न अलभ्य किसी धन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को ।<br />
<br />
किस गौरव के तुम योग्य नहीं<br />
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं<br />
जान हो तुम भी जगदीश्वर के<br />
सब है जिसके अपने घर के <br />
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को ।<br />
<br />
करके विधि वाद न खेद करो<br />
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो<br />
बनता बस उद्यम ही विधि है<br />
मिलती जिससे सुख की निधि है<br />
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को<br />
नर हो, न निराश करो मन को<br />
कुछ काम करो, कुछ काम करो । </div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-64493721419607393102014-08-19T17:45:00.002-07:002014-11-25T09:05:30.859-08:00स्वदेश प्रेम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #990000; font-family: Mangal;">६८वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की सुन्दर पंक्तियाँ</span>…<br />
<br />
<strong>जो भरा नहीं है भावों से,</strong><br />
<strong>जिसमें बहती रसधार नहीं।</strong><br />
<strong> वह हृदय नहीं है पत्थर है,</strong><br />
<strong> जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।</strong></div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-46950517034573884682014-05-06T11:55:00.001-07:002014-05-06T12:01:39.717-07:00निराला ठाठ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भारत जैसा देश न दुनिया में है, और न होगा… <br />
<br />
निराशा और रोज़ के झमेलों में लोग यह भूल जाते हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि रोज़ आप आशा से जीवन व्यतीत करें और अपने भारतीय होने के सौभाग्य को याद रखें। <br />
<br />
यह बलिदान की धरती है, इसकी मिट्टी से तिलक करना चाहिये.… <a href="http://www.youtube.com/watch?v=lWsGPxp4s1w"><strong>सुनिए यहाँ पर</strong></a> <br />
<br />
<strong><span style="background-color: #d0e0e3;"><span style="color: orange;">जय</span> <span style="color: white;">हि</span><span style="color: lime;">न्द</span> !!!</span></strong></div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-6932179150816577272014-01-28T17:10:00.000-08:002014-11-25T09:06:35.241-08:00जीवन कर्म प्रधान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सनातन धर्म के दो मुख्य तत्व हैं -- <br />
<strong>अभ्युदय </strong>(भौतिक समृद्धि) और <br />
<strong>निश्रेयस </strong>(आत्मिक सुख)<br />
इसका एक अर्थ यह है कि बाहर से संसार और अंदर से सन्यास। यही जीवन का सत्य है और यही कर्मयोग का सिद्धांत है। बाहर की समृद्धि (धन, परिवार आदि) के सुख में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। बस कर्म करते रहना चाहिए और भगवान को समर्पित करना चाहिए। <br />
<br />
तुलसीदास जी कहते हैं.… <br />
<strong>करम प्रधान विश्व रचि राखा </strong><br />
<br />
(जीवन कर्म प्रधान है, इसमे फल की चिंता किये बिना कर्म करते रहना चाहिए। असफलताओं से घबराना नहीं चाहिए जो तात्कालिक ही होती हैं। )<br />
<br /></div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-60165426447867709372012-02-12T12:13:00.000-08:002012-02-12T12:41:58.786-08:00लक्ष्मण-निषाद संवाद<span style="font-size:85%;">जब निषादराज ने राम और सीता को धरती पर सोते हुए देखा, तब उसको बहुत दुःख हुआ। तब लक्ष्मण जी ने उसको ज्ञान, वैराग्य और भक्तिपूर्ण वाणी से समझाया...<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता। निज कृत करम भोग सब भ्राता॥<br /></strong>हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>जोग वियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥<br />जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। सम्पति बिपति करमु अरु कालू॥<br /></strong>संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥<br />देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥<br /></strong>धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।<br />जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥<br /></strong>जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥<br />मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥<br /></strong>ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।<br /></span><br /><strong><span style="font-size:85%;">एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥<br />जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥</span></strong><br /><span style="font-size:85%;">इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।<br /></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥<br />सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥<br /></strong>विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) हैं।<br /><span style="font-size:0;"></span></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥<br />सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥<br /></strong>श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।<br />करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥</strong><br />वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥<br />कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥</strong><br />हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्री रामजी जागे। </span><br /><span style="font-size:78%;color:#009900;"><strong>(अयोध्याकाण्ड दोहा ९१-९३)</strong></span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-14426698249224269732012-02-09T15:17:00.000-08:002012-02-09T15:31:21.134-08:00प्रभु की शिशुलीला<span style="font-size:85%;">तुलसीदास जी ने बहुत ही सुंदर वर्णन किया है प्रभु के जन्म का। साथ ही माता के आग्रह का, जो शिशुलीला देखने को उत्सुक हैं...</span><br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=DIMFKdFV0Lg"><strong><span style="font-size:78%;"><span style="color:#009900;">इसको सुनिए यहाँ पर...</span></span></strong></a><br /><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:+0;"></span></span><br /><span style="font-size:78%;">भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी । हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥<br />लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी । भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ॥<br />कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता । माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ॥<br />करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता । सो मम हित लागी जन अनुरागी भयौ प्रकट श्रीकंता ॥<br />ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै । मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ॥<br />उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै । कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥<br />माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा । कीजे सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥<br />सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा । यह चरित जे गावहि हरिपद पावहि ते न परहिं भवकूपा ॥<br /></span><span style="font-size:85%;"><br /></span><span style="font-size:85%;"></span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-84381424470170913062012-01-19T14:45:00.000-08:002012-01-19T14:50:01.800-08:00बालकाण्ड<span style="font-size:85%;">नए वर्ष की शुरुवात कुछ सुंदर पंक्तियों के साथ... </span><br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=XC3JwAiH5JQ"><strong><span style="font-size:85%;">बालकाण्ड १.१</span></strong></a><span style="font-size:85%;"> </span><br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=MwV2WlLe_5Y"><strong><span style="font-size:85%;">बालकाण्ड १.२</span></strong></a><span style="font-size:85%;"> </span><br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=P_ea4fJFeH0"><strong><span style="font-size:85%;">बालकाण्ड १.३</span></strong></a><br /><span></span><span style="font-size:85%;"></span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-15811312364015075512011-08-28T23:20:00.000-07:002013-12-03T18:11:04.507-08:00In Respect of Dear Anna ji...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: 85%;">Two songs dedicated to him... <br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=5prJZctnon0"><strong>Sabarmati ke Sant</strong></a> </span><a href="http://www.youtube.com/watch?v=c9ytEgrXLsA"><br><span style="font-size: 85%;"><strong>Ye Desh Hai Tumhaara</strong></span></a><span style="font-size: 85%;"><strong> </strong></span></div>
Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-43931740322200620372011-05-06T22:00:00.000-07:002011-05-06T23:18:41.069-07:00तप के प्रकार (भगवदगीता)जीवन का तप मात्र वन में जाकर ध्यान समाधि लगाने से ही नहीं होता है। जीवन के प्रत्येक आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास) में तप किया जा सकता है। धर्म के बताये मार्ग पर चलते रहकर दृढ अनुशासन से हमेशा कठिन प्रयत्न करते रहना भी तप है। तप से व्यक्ति में विशेष उत्साह और शक्तियां आती हैं। इनका पालन करने से तपोबल आता है, जो कठिन लक्ष्यों को भी अपने प्रभाव से आसान बना देता है।<br /><span style="font-size:0;"></span><br />भगवान् कृष्ण ने गीता में अपने अनमोल वचनों में तप के विभिन्न प्रकार बताये हैं -- शरीर-संबंधी तप, वाणी-संबंधी तप और मन-संबंधी तप ।<br /><br /><span style="font-size:85%;"><strong>१. देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप </strong><strong>उच्यते॥ </strong>(गीता १७/१४)<br /></span>देव, विप्र, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा -- यह शरीर-संबंधी तप कहलाते हैं।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>२. अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥ </strong>(गीता १७/१५)<strong> </strong><br /></span>उद्वेग (क्षोभ) न पैदा करने वाला, सत्य, प्रिय और यथार्थ बोलना, वेद-शास्त्रों को पढना और परमात्मा का नाम जपना -- यह वाणी-संबंधी तप कहलाते हैं।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>३. मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥</strong> </span><br /><span style="font-size:85%;">(गीता १७/१६)<br /></span>मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवान् का चिंतन करते हुए कर्म करना, मन पर नियंत्रण और अंतःकरण की पवित्रता -- यह मन-संबंधी तप कहलाते हैं।Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-60034229051866385332011-05-06T20:49:00.000-07:002011-05-06T22:00:25.657-07:00पात्र की योग्यता<span style="font-size:85%;">कुछ चीजों पर समय नहीं बर्बाद करना चाहिए क्योंकि उन पर प्रयत्न विफल ही हो जाता है। इनमें ओछे लोगों की मित्रता भी एक है। रहीम जी ने एक दोहे में कहा है...<br /><br /><strong>रहिमन ओछे नरन से बैर भली न प्रीत।</strong><br /><strong>काटे चाटे स्वान के दोउ भांति विपरीत॥ </strong><br /><br />इसका अर्थ है कि ओछे लोगों, जिनकी कथनी और करनी विश्वास के योग्य नहीं है, से न तो दोस्ती भली है, न ही दुश्मनी भली। जिस प्रकार कुत्ते के काटने (दुश्मनी) और चाटने (स्नेह) दोनों में ही अपना नुक्सान हो सकता है, उसी प्रकार ओछा व्यक्ति आपसे स्नेह करके भी आपको धोखा दे सकता है।<br /><br />इसी सन्दर्भ में तुलसीदास जी ने कहा है कि केले (कदरी) के पेड़ में कितना भी पानी डाल दो, वह तभी फल देता है जब उसको काट दो। उसी तरह नीच तभी मानता है जब उसको डांटना पड़े।<br /><br /><strong>काटेहि पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोइ सींच।<br />बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥ </strong>(सुन्दरकाण्ड दो० ५८)<br /><br />इसी प्रकार कुछ तरह के लोगों पर समय नहीं बर्बाद करना चाहिए। इनमें से तुलसीदास जी कहते हैं...<br /><br /><strong>सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुन्दर नीती॥<br />ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥<br />क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥ </strong>(सुन्दरकाण्ड दो० ५७ चौ० २/३)<br /><br />मूर्ख से विनती, धूर्त से स्नेह, स्वाभाविक कंजूस से उदारता की बातें, ममता में फंसे हुए से ज्ञान की बातें, बहुत लालची से वैराग्य की बातें, क्रोधी से शांति और कामी से भगवान् की कथा का फल वैसा ही होता है, जो बंजर धरती में बीज बोने से होता है। इनका परिणाम व्यर्थ ही होता है। </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-31694235796830720352011-03-24T14:31:00.000-07:002011-03-25T14:03:01.775-07:00मित्रता हो तो ऐसी...सीस पगा न झगा तन पे प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।<br />धोती फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँयउ पानह की नहिं सामा॥<br />द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकि सों वसुधा अभिरामा।<br />पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥<br /><br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=-8waJNy36zI"><strong>बाकी देखिये यहाँ </strong></a><a href="http://www.youtube.com/watch?v=-8waJNy36zI"><strong>पर</strong></a><strong>...</strong><br /><span style="color:#006600;">कौन ये महत्वपूर्ण आ गया है द्वार पर, कि अगुवानी करने को ऐसे अकुलाते हैं...<br /></span><span style="color:white;">इति</span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-66472555772891603092010-04-18T12:31:00.000-07:002010-04-18T12:45:34.645-07:00प्रेम में कपट का स्थान नहीं...<span style="font-size:85%;">तुलसीदास जी कहते हैं...प्रेम में कपट का कोई स्थान नहीं होता...</span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><strong><span style="font-size:85%;">जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि। </span></strong><br /><span style="font-size:85%;"><strong>बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥ </span></strong><span style="font-size:78%;">[बालकाण्ड सोo ५७ (ख)]</span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><span style="font-size:85%;">प्रीति की सुंदर रीति देखिये कि जल भी [दूध के साथ मिलकर] दूध के समान भाव बिकता है; परन्तु फिर कपटरुपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है [दूध फट जाता है] और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है। </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-5802605757074701952010-04-15T10:00:00.000-07:002010-04-15T11:16:57.994-07:00विषय चिंतन<span style="font-size:85%;"><u>भगवदगीता अध्याय २ </u><br />श्लोक ६२:<br /></span><span style="font-size:85%;"><strong>ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।<br />संगात्संजायते कामः कामातक्रोधोऽभिजायते॥<br /></strong><br />विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।<br />(When one dreams of worldly objects, he gets infatuated with them. From infatuation arise Desires. Any obstruction in fulfilment of these desires creates Anger.)<br /><br />श्लोक ६३:<br /><strong>क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्म्रृतिविभ्रमः।</strong><br /><strong>स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥</strong><br /><br />क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम होने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।<br />(Anger brings Delusion (Foolishness); from Delusion arises Confusion of right and wrong. The Confusion leads to Loss of Wisdom, which in turn spells utter destruction.) </span><br /><span style="font-size:85%;"></span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-42997467292843551992010-01-15T16:06:00.000-08:002010-01-15T16:18:04.038-08:00बिन प्रेम के भगवान नहीं<span style="font-size:85%;">तुलसीदास जी कहते हैं... </span><br /><br /><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:100%;"><strong>मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।। </strong><br /></span>कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको भगवान नहीं मिलेंगे जिसके मन में उनके लिए सच्चा प्रेम नहीं होगा। </span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:100%;"><strong>हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना॥ </strong><br /></span>भगवान हर जगह व्याप्त हैं। किसी को उन्हें कुछ दिखाने की जरुरत नहीं है। उन्हें आपके मन और जीवन दोनों की स्थिति का पूरा ज्ञान है। लेकिन वो प्रकट होते हैं, तो केवल उसी के लिए, जिसके मन में उनके लिए सच्चा प्रेम हो। </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-25743541964126111382010-01-02T13:07:00.000-08:002010-01-02T13:43:34.070-08:00राम नाम अति मीठा है...<span style="font-size:85%;">सुनिए <a href="http://www.youtube.com/watch?v=j2-cvq9aSxU"><strong>अनूप जलोटा जी की आवाज में यहाँ पर</strong></a></span><br /><span style="font-size:85%;"><br />राम नाम अति मीठा है कोई गा के देख ले।<br />राम नाम अति मीठा है कोई गा के देख ले<br />आ जाते हैं राम कोई बुला के देख ले।<br />राम नाम अति मीठा है कोई गा के देख ले॥<br /><br />जिस घर में अंधकार वहाँ मेहमान कहाँ से आये।<br />जिस मन में अभिमान वहाँ भगवान कहाँ से आये।<br />जिस घर में अंधकार उस घर में मेहमान कहाँ से आये।<br />जिस मन में अभिमान उस मन में भगवान कहाँ से आयें।<br />अपने मन मंदिर में जोत जला के देख ले।<br />आ जाते हैं राम कोई बुला के देख ले।<br />राम नाम अति मीठा है...<br /><br />आधे नाम में आ जाते हैं, हो कोई बुलाने वाला।<br />बिक जाते हैं राम, कोई हो मोल चुकाने वाला।<br />आधे नाम में आ जाते हैं, हो कोई बुलाने वाला।<br />बिक जाते हैं राम, कोई हो मोल चुकाने वाला।<br />कोई शबरी, झूठे बेर खिला के देख ले।<br />आ जाते हैं राम, कोई बुला के देख ले।<br />राम नाम अति मीठा है...<br /><br />सीता राम सीता राम सीता राम कहिये।<br />सीता राम सीता राम सीता राम कहिये।<br />सीता राम कहिये सीता राम कहिये।<br />जाही विधि राखें राम ताहि विधि रहिये।<br /><br />राम नाम अति मीठा है कोई गा कर देख ले।<br />आ जाते हैं राम कोई बुला कर देख ले॥ </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-48161723870911086782009-11-28T12:30:00.000-08:002009-11-28T19:07:54.295-08:00एक ख्याल बस यूँ ही...<span style="font-size:85%;">आज बिस्तर पर लेटे लेटे मैं एक पिक्चर फ्रेम को देख रहा था जिसे मेरे पापा ने सजाया था। उसमें उन्होंने उस फ्रेम की बनावट के हिसाब से परिवार के सब लोगों की अलग अलग तसवीरें लगा दी थीं। हालाँकि उनका आकार अलग अलग था, लेकिन वह फिर भी अपने अनूठे अंदाज़ में एक थीं। देखते देखते मैं सोच रहा था कि कर्तव्य और प्रेम के कितने पावन धागे से इस परिवार के सदस्य आपस में बंधे हुए हैं। शरीर हो न हो, कर्तव्य और उसके ऋण हमेशा रहते हैं। इन्हीं ख्यालों में दोपहर के आराम का वक्त निकल गया।<br /><br />वक्त बीतते वक्त नहीं लगता। जैसे बचपन से जवानी आयी, वैसे ही बुढ़ापा भी आएगा। यह तो एक अटल सत्य है। मानव शरीर पाना ही एक बहुत दुर्लभ संयोग है। इसमें अगर अच्छी संगत भी मिले, तो क्या कहने। बहुत भाग्य से ऐसी बुद्धि मिलती है जो हमेशा धर्म के रास्ते पर ले चले। यहाँ पर भटकने में वक्त नहीं लगता। कलियुग की दास्ताँ ऐसी ही है कि धर्म की बातें वही पुरानी हैं, लेकिन अर्थ बदल गया है अपनी सुविधानुसार। वह जीवनमूल्य जो रघुकुल ने समाज को दिए थे, उनको अपनाने का साहस आजकल बहुत कम में होता है। कर्तव्यों की परिभाषा को भी लोगों ने बदल लिया है। कौन सा लक्ष्मण, कौन सी सीता, कौन से दशरथ, कौन सी गीता। संतोष, धीरज और बलिदान अब केवल तिरंगे की पट्टियों पर ही दिखते हैं। उनके अर्थ को समझने और उनका उदाहरण प्रस्तुत करने वाले गुरु बिरले ही मिलते हैं। मेरे माता-पिता के आजीवन त्याग, धैर्य और संतोष से इन्हीं जीवनमूल्यों का उदहारण देखते हुए मुझे अपने ऋणों का अहसास प्रतिदिन होता है।<br /><br />सोचता रहा कि सभी की बची जिंदगी में उस ऋण को चुकाने का सबसे अच्छा उपाय कौन है। सारे बुद्धि के किनारों को टटोलने के बाद भी मुझे एक ही रास्ता दिखाई पड़ा, वह है सेवा का। उनकी खुशी में मेरा कितना आनंद है, शायद उन्हें भी नहीं पता। लेकिन सच्चा सुख इस सरल सेवामय जीवन के अलावा मैं अभी तक और तो कहीं ढूंढ नहीं पाया...</span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-24244923199150962562009-11-21T12:28:00.000-08:002009-11-21T12:48:52.749-08:00Pomegranate (अनार)<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIp3wBFfITZ5CjWjTtzOp8XwALtVAlDmFZQmqYgvhM3J5KL08akpnXf3Pdch_83UYk_hJT_cdU5IIZMrzeiqygF0Hsxnf4nrQ4HTNs1J6Ok1jcTl1M5HF1zlJKLuhxiqvegj19rJsfk9hU/s1600/Pomegranate.jpg"><span style="font-size:85%;"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 174px; FLOAT: left; HEIGHT: 123px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5406660274800145202" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIp3wBFfITZ5CjWjTtzOp8XwALtVAlDmFZQmqYgvhM3J5KL08akpnXf3Pdch_83UYk_hJT_cdU5IIZMrzeiqygF0Hsxnf4nrQ4HTNs1J6Ok1jcTl1M5HF1zlJKLuhxiqvegj19rJsfk9hU/s320/Pomegranate.jpg" /></span></a><span style="font-size:85%;"> </span><span style="font-size:85%;">Full of powerful antioxidants to rejuvenate your life<br /></span><br /><span style="font-size:85%;">Good for digestion when consumed mixed with 1 tsp ginger juice</span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><span style="font-size:85%;">More later...</span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-65713667379495030002009-11-16T20:24:00.001-08:002009-11-28T13:18:33.953-08:00In My Father's Words...<div align="left"><strong>"मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर।<br />मन के मत चलिए नहीं, पलक पलक मन और॥</strong>"</div><br />(मत = भरोसे)<br /><div align="left"></div>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-77247032879424865902009-11-14T23:02:00.000-08:002009-11-15T09:41:30.503-08:00A Verse from Gita<span style="font-size:85%;">Taken from Gandhi ji's autobiography (<em>Story of My Experiments with Truth</em>) is the following verse from the second chapter of Gita...</span><br /><br /><div align=center><span style="color:#000000;" ><span style="PADDING-LEFT: 235px;font-size:85%;" ><strong>If one</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Ponders on objects of the sense, there springs</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Attraction; from attraction grows desire,</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Desire flames to fierce passion, passion breeds</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Recklessness; then the memory -- all betrayed --</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Lets noble purpose go, and saps the mind,</strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>Till purpose, mind, and man are all undone.</strong></span></span></div>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-49365118093871855612009-11-14T20:55:00.000-08:002009-11-16T21:36:28.709-08:00"Farsighted" Vision<span style="font-size:85%;">Walking through a dark forest inhabiting lions and snakes, would you be looking at your steps or at a distance? If you look out for the lions at a distance, you may step over a snake unknowingly. But, if you just watch where you step, you may unwittingly walk up to a waiting lion's face. So, which one would you prefer -- a snakebite or a lionkill? In the humor above, my point is, would you or should you overlook the small for the big? This example just highlights the importance of far-sight. And, <em>of course not in the crude way it is questioned above...</em></span><em><br /><span style="font-size:85%;"></span></em><br /><span style="font-size:85%;">This brings us to the importance of <strong>vision</strong>. It creates a power to see beyond present circumstances and create what does not yet exist. As Covey says, it gives us capacity to live out of our imagination instead of our memory. </span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><span style="font-size:85%;">If our vision is based on illusion, we make choices that fail to create quality-of-life results that we expect. We become disillusioned and cynical and don't trust our dreams anymore. If our vision is partial based only on economic and social needs ignoring mental and spiritual needs, we make choices that lead to imbalance. If our vision is based on the social mirror, we make choices based on expectation of others and living out their scripts.</span><br /><span style="font-size:85%;"></span><br /><span style="font-size:85%;">Vision has a passion that empowers us to trascend fear, doubt, discouragement and other that keep us from accomplishment. The passion of shared vision empowers people to transcend the petty, negative interactions that consume so much time and effort and deplete quality of life. So, if you don't have it, make a vision for yourself today and refine it as you sail through your daily journey. And, if you already have one, learn to evaluate interruptions as no more than just minor obstacles while keeping eyes on your vision. And, <strong><em>Have faith in the promises of tomorrow.</em></strong> </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-80430071635086095232009-11-11T14:16:00.000-08:002009-11-11T14:56:37.269-08:00A Prayer from My Mother's College...<span style="font-size:85%;"><span style="color:#009900;">इन शब्दों पर भी जरा विचार कीजिये...</span></span><br /><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:0;"></span></span><br /><span style="font-size:85%;">वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएँ,<br />पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जाएँ।<br /><br /></span><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:0;"></span></span><span style="font-size:85%;">हम दीन दुखी निबलों विकलों, के सेवक बन संताप हरें,<br />जो हो भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें ख़ुद तर जाएँ,<br />छल द्वेष दंभ पाखण्ड झूठ, अन्याय से निसि दिन दूर रहें,<br /><br />जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम सुधा रस बरसाएँ,<br />निज आन मान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे,<br />जिस देव भूमि में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाए,<br /><br />वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर दत्त जाएँ,<br />पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जाएँ। </span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-196403149313370021.post-21649973594410071772009-11-06T22:46:00.000-08:002009-11-07T11:06:56.123-08:00मिथ्या दोष<span style="font-size:85%;">तुलसीदास जी कहते हैं... </span><br /><span style="font-size:85%;"><strong><span style="font-size:0;"></span></strong></span><br /><span style="font-size:85%;"><strong>जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ।</strong><br /><strong>सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ॥ </strong>(उत्तरकाण्ड दोहा ४४)<br /><br />जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से तरने का प्रयास नहीं करता है या जन्म-मरण के चक्र से छूटने का प्रयास नहीं करता है, वह कृतघ्न, निंदनीय और मंदमति है। वह आत्मा का हनन करता है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।<br /></span><span style="font-size:85%;"></span><span style="font-size:85%;"><p><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong><span style="font-size:0;"></span></strong></span></p><span style="font-size:85%;"><strong>सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताय। </strong><br /><strong>कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय॥ </strong>(उत्तरकाण्ड दोहा ४३) </span><br /><span style="font-size:85%;"></span><span style="font-size:85%;"><br />वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है। </span><br /><span style="font-size:85%;"><span style="font-size:0;"></span></span><br /><span style="font-size:85%;">इसका अर्थ यह है कि इन तीनों पर दोष लगाना व्यर्थ है। श्री कृपालुजी महाराज कहते हैं...कि <strong>अपने दोष या दुर्भाग्य को काल (कि समय बुरा है), कर्म (कि पिछले जन्म का कर्मफल है) या ईश्वर (कि भगवान ने यह मुझसे बुरा करवाया है) पर लगाना बहुत बड़ी नासमझी है।</strong> ऐसे भ्रम में रहकर अकर्मण्य बने रहना अपने ही नाश का मार्ग है। <span style="color:#009900;">(इस पर लेख '<strong>प्रेम रस सिद्धांत</strong>' में उपलब्ध है)</span></span>Puneethttp://www.blogger.com/profile/15624485614381988282noreply@blogger.com0