वेद शास्त्रों में कहा गया है कि "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, और बुरा मत बोलो" । यही बात महात्मा गाँधी जी ने भी दोहरायी है। इन शब्दों का मतलब हमारी अवचेतन (subconscious) मनोवस्था से है। इन शब्दों को अकर्मण्यता के अर्थ से नहीं समझना चाहिए क्योंकि इनका असली अर्थ हमारे अवचेतन मन से बताया गया है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हमको दुष्कर्मों को रोकना नहीं चाहिए।
बुरा देखने से हमारे मन में बुरे विचार आते हैं और अनजाने ही वोह हमारे मन पर प्रभाव छोड़ जाते हैं। यह बुरे चित्र आपके मन में कई तरह से आ सकते हैं, जैसे बुरी फिल्में देखने से, बुरी संगत में रहने से, बुरे व्यवहार को देखने से, बुरे चित्र देखने से आदि।
बुरा सुनने से हमारे विचार प्रदूषित होते हैं। जैसे किसी की बुराई सुनना, किसी की कुटिल बातें सुनना, किसी की अपमानजनक बातों को सुनना और ह्रदय में ले लेना, किसी की घृणा से भरी हुई बातें सुनना। कहते हैं सुनी हुई बातों पर ऐसे ही विश्वास नहीं कर लेना चाहिए।
बुरा बोलना तो कतई भी नहीं चाहिए क्योंकि हम अपनी ही जिह्वा का प्रयोग करके यदि विष भरी बातें दूसरो को सुनायेंगे, तो उन पर हमारा भी भरोसा बढता जायेगा। हमारी आत्मा सब जानती है, वह जानती है की हम कितना सच और कितना झूठ बोल रहे हैं। अपने आप को इश्वर का एक अंश मानकर हमेशा सत्य की राह पर चलना चाहिए। कभी अनजाने में, क्रोध में असत्य वचन जरुर निकलेगा, लेकिन सत्य पर चलने के लिए अभ्यास करते रहना चाहिए। अगर किसी को अपनी भूल का अहसास हो जाए, उसे तो भगवान् भी माफ़ कर देते हैं। यही सोच कर हमने जो ग़लत बोला है, वह भविष्य में न हो, इसका प्रयत्न करना चाहिए।
अंत में तुलसीदास जी की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिनमें उन्होंने दृढ़ यानी अडिग चीजों का वर्णन करते हुए संज्ञा दी है: एक तो अंगद का पैर, दूसरा सती मन ।
वो कहते हैं...
भूमि न छांड़त कपि चरन देखत रिपु मद भाग ।
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग॥
वानर अंगद का चरन पृथ्वी नहीं छोड़ रहा था जैसे करोड़ों विघ्न आने पर भी संत का मन नीति नहीं छोड़ता है। यह देख कर शत्रुओं का मद (घमंड) दूर हो गया।
दूसरी जगह पर वो सती मन की तुलना शिव धनुष से करते हैं। जब घमंडी राजाओं ने सीता स्वयम्वर में शिव धनुष को उठाने की लाख चेष्टा की थी और वह हिला भी नहीं था। तब संत तुलसी कहते हैं...
डगहि न संभु सरासन कैसे। कामी बचन सती मन जैसे॥
संभु अर्थात शिव, और सरासन अर्थात धनुष। शिव धनुष अडिग था इस तरह, जैसे किसी कामी के वचन से सती स्त्री का मन नहीं डोलता है।
इन बातों का तात्पर्य यही है कि हमको अपने अवचेतन मन को सुद्रढ़ बनाना चाहिए। सुद्रढ़ अर्थात सु+दृढ। अच्छी बातों से तीनों इन्द्रियों (आँख, कान और मुंह) से वही ग्रहण करना चाहिए जो हमें नीति के मार्ग पर ले जाए। यही हमारा मंगल करेगा क्योंकि, जो हम बोयेंगे, वही काटेंगे। यह तो बस समय की बात है।
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