Tuesday, September 29, 2009
सिय चरित्र
ग्रंथों को पढने और समझने का असली आनंद सूक्ष्म बुद्धि से ही आता है, स्थूल बुद्धि से नहीं **। सूक्ष्म बुद्धि से हम यह अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि देवी होते हुए भी सीता जी ने जो मनुष्य रूप में चरित्र दिखाया, उसी को "लीला" कहते हैं और वही लीला समाज को आदर्श चरित्र का अर्थ दिखाती है और उसे अपनाने की प्रेरणा देती है। सीता जी जगतमाता लक्ष्मी जी का अवतार मानी गई हैं, किंतु उन्होंने हर अवसर पर अपने बुजुर्गों से जीवन शिक्षा पाने की कोशिश भी की।
सुनिए.... माता की शिक्षा और अत्रि ऋषि-आश्रम में महासती अनुसूया का परामर्श
** सूक्ष्म -- spiritual, स्थूल -- physical
अभी पूरा नहीं हुआ। बाकी बाद में...
Monday, September 28, 2009
विवेक और ज्ञान
खासकर जहाँ पर तौलने के पैमाने बदल जाते हैं, वहां चूक होना बहुत आसान होता है। जैसे दो अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों की तुलना करना किसी पर्यटक के लिए कठिन हो सकता है। अमीर देशों के कर्मों से निचले दर्जे के नागरिक भी देखने में सभ्य, स्वभाव और बातों में जोरदार लगते हैं, किंतु उनमें फर्क संस्कृति को समझने के बाद ही पता चलता है। मानव स्वभाव में एक कमजोरी झुंड में चलने की होती है। यह आदत तो हमारे उत्पत्ति से ही हमारे अंदर होती है। लेकिन हम अपने ज्ञान को सामने रखकर किसी भी स्थिति में कैसे उपाय करें, यह हमारे संस्कार और विवेक हमें दिखलाते हैं। जीवन में अनुभव धीरे धीरे ही आता है। इसीलिए हमारा विवेक कितना परिपक्व हुआ है, इसका पता परिस्थितियों के आने पर ही लगता है। विवेक में निखार हमारे अपने खुलेपन से आता है, सीखने की चाहत और दृढ़ विश्वास की जरुरत होती है।
कबीर दास जी कहते हैं...
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त॥
जब किसी की विवेक की आँख फूट जाती है, अर्थात विवेक नहीं रह जाता है, तब उसको संत और असंत में फर्क नहीं मालूम पड़ता है। जिसके साथ भी १०-२० लोग दिखाई पड़ते हैं, वह उसीको महंत मानने लगता है।
या अनुरागी चित्त की...
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥
कोई भी इस प्रेमी ह्रदय की गति को नहीं समझ सकता है। जैसे जैसे यह श्याम रंग (अर्थात भगवान के प्रेम) में डूबता है, वैसे वैसे ही यह उज्जवल होता जाता है और मन शुद्ध होता जाता है। (कवि ने श्याम (यानि काले) रंग में डूबने से उजला होते दिखाया है)
सात्विक जीवन मूल्यों में भगवान का वास माना गया है। जैसे कबीर दास कहते हैं, जहाँ क्षमा, वहां आप। उसी तरह अच्छे गुण दूसरों के नहीं, बल्कि अपने ही भले के लिए होते हैं।
Saturday, September 26, 2009
Tuesday, September 15, 2009
विश्वास
मन का विश्वास एक ऐसी अपार शक्ति है जिससे बड़े बड़े चमत्कार हो जाते हैं। चाहे कोई रोग हो, चाहे कितनी भी कठिन जीवन-स्थिति हो या फिर पर्वत से भी ऊँचे लक्ष्य हों। सब हमारे विश्वास के आगे छोटे पड़ जाते हैं। विश्वास के साथ चाहिए हमको -- दृढ़ संकल्प, अटूट श्रद्धा और फिर से उठ खड़े होने की क्षमता। थोडी से बातों से विश्वास डगमगा जाना तो बहुत ही मामूली है। अगर यह आपके साथ होता है, तो इसमें कोई ख़राब बात नहीं है। यह तो प्रकृति ने सभी जीवों को दिया है, जो उन्हें अपना प्राथमिक लक्ष्य (जो कि जीवित रहना है) पूरा करने में मदद करता है। किसी भी कठिनाई (या जानलेवा परिस्थिति) के लिए शरीर का पहला जवाब उससे दूर भागना होता है। वैसे सामान्य परिस्थितियों से जीव चार तरीके से निपटता है, उनपर -- विजय पाकर, स्वीकार करके, परहस्त करके (दूसरे को देकर), या टालकर। कठिन परिस्थितियां हमें मजबूर कर सकतीं हैं, आसान राह लेने के लिए या अपनी शक्तियों की पहचान करके विश्वास के साथ कठिन राह लेने के लिए।
विश्वास एक ऐसा गुण है जो हमको बहुत प्रयत्न से मिलता है। भगवान सभी को सब कुछ इसीलिए नहीं देता है क्योंकि वह देखना चाहता है कि लेने वाले में कितनी चाहत है लेने की। विश्वास की डोर जितनी मजबूत होगी, हमें सफलता भी उतनी अधिक मिलेगी। जैसे आप रोगी को कितनी भी दवाएं खिला दें, उसको फायदा नहीं होगा जब तक उसका उन दवाओं पर विश्वास नहीं होगा। विश्वास जो शंका से भरा हुआ है, वह मजबूत नहीं हो सकता क्योंकि उसमें पूरी श्रद्धा नहीं हो सकती। लाखों लोग मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे वगैरह जाकर पूजा करते हैं, लेकिन आज तक भगवान को किसी ने नहीं देखा। कबीर दास जी कहते हैं... "ना काबे में, ना कैलाश में। मोको कहाँ तू ढूंढें रे बन्दे, मैं तो तेरे विश्वास में।" तुलसीदास जी ने भी कहा है..."सातवाँ सम मोहि मय जग देखा।" इसका अर्थ है कि (नवधा भक्तियों में सातवें प्रकार की) भक्ति सारे जगत को राममय देखने से होती है कि भगवान इस जगत के सारे जीवों में ही हैं और हम यह विश्वास रखकर ही भक्ति करें। इसका सारांश यही है कि, सर्वत्र और हमारे विश्वास में साक्षात भगवान का वास होता है। वहीँ से उनकी प्रेरणा आती है, जो हमें जीवन मार्ग दर्शन देती है।
विश्वास जीवन के रिश्तों को भी मधुर बना देता है। रिश्तों में भी हमारा पहला ध्यान सबसे बड़े लक्ष्य पर ही होना चाहिए। सबसे छोटी बातों को तो नजरअंदाज़ कर देना चाहिए क्योंकि इससे अपनी ही शान्ति चली जाती है। बुद्ध धर्म में भी कहा गया है कि क्रोध का सबसे बड़ा नुकसान ख़ुद को ही होता है, क्योकि वह अंदर ही अंदर आपको जला देता है, चाहे आप स्वीकार न भी करो। जब भृगु ऋषि ने विष्णु जी को लात मारकर जगाया था, तब विष्णु जी ने पहले पूछा कि ऋषि के पैर में चोट तो नहीं लगी। इस सुंदर उदहारण से दिखता है कि, गुस्से का कारण भले ही अपने हाथ में न हो , लेकिन हमारी अपनी प्रतिक्रिया हमेशा अपने हाथ ही होती है। इस बात पर कभी गौर फरमाइयेगा। जब हमारा ध्यान सबसे बड़े लक्ष्य पर होता है, तब हमको अर्जुन की तरह सिर्फ़ चिड़िया की आँख ही दिखाई देती है और हम दुनिया के बाकी छोटे-बड़े भुलावों को नहीं देख पाते। मेरी पसंदीदा फ़िल्म राजेश खन्ना वाली 'बावर्ची' में इस चीज को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। जब हम कोई भी अपेक्षा न रखकर दूसरों को सच्चा प्यार देने लगते हैं, तब हमको दूसरों से भी वही प्यार वापस मिलने लगता है। इसमें भी विश्वास का एक अटूट बंधन है कि हमको प्यार मिलकर ही रहेगा। गाँधी जी के सत्याग्रह और अहिंसा के मार्ग पर भी उनका यही दृढ़ विश्वास था कि समय जरुर लगेगा, लेकिन जीत उनके विश्वास की ही होगी। यही लगन है जो हारे हुए को भी हार मानने नहीं देती। अब्राहम लिंकन जिंदगी भर हारते रहे, लेकिन शायद उनको जिंदगी हार मानना सिखाना ही भूल गई थी और अंत में वे राष्ट्रपति बने। मान लें कि आपका अपना भाग्य आपके हाथ में नहीं होता, लेकिन आपका अपना संकल्प अपने हाथ जरुर होता है। इसलिए, अभ्यास कीजिये कि आप अपने विश्वास को इस कदर मजबूत बना लें कि वह भगवान भी आप की इस लगन पर मुस्कुरा दे।
Saturday, September 12, 2009
Recently Watched...
इसी गाने का दूसरा रूप
शैलेन्द्र जी का बहुत ही सुंदर गाना और वैजयंतीमाला का खूबसूरत प्रदर्शन...
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यही है वह सांझ और सवेरा (सांझ और सवेरा, 1964)
Sunday, September 6, 2009
पंचतंत्र की कहानियाँ
१. चतुर लोमड़ी (शिक्षा: चापलूसों से बचना चाहिए)
२. टोपियों का व्यापारी (शिक्षा: संकट में ठंडे मन से सोचना चाहिए)
३. अहसान फरामोश चूहा (शिक्षा: अपने "मालिक" का अहसान मानना चाहिए)
४. किसान के पुत्र (शिक्षा: एकता में ही शक्ति है)
५. गधे की सवारी (शिक्षा: अपने दिमाग से न सोचकर दूसरों के कहने पर चलने वाले की जगहंसाई होती है)
६. हाँथी की मित्रता (शिक्षा: मित्र वह जो मुसीबत में काम आए)
७. बिल्ली के गले में घंटी (शिक्षा: सुझाव देना आसान, पर अमल करना मुश्किल)
८. मुसीबत से छुटकारा (शिक्षा: एकता में ही शक्ति है)
९. धूर्त भेड़िया (शिक्षा: धोखाधडी वाला अंत में पकड़ा ही जाता है)
१०. जो हुआ अच्छा हुआ (शिक्षा: जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है)
Saturday, September 5, 2009
सहिष्णुता
सहिष्णुता का अर्थ है, सहनशीलता। यह एक ऐसा अनमोल गुण है, जिसको पाकर मनुष्य बडे से बडे लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। किसी भी स्थिति को बिगाड़ लेना हमारे स्वाभिमान के लिये बहुत आसान है। लेकिन सहिष्णुता हमको यह दिखाती है कि हमारे लिये क्या आवश्यक है, स्वाभिमान की जीत या हमारा अन्तिम लक्ष्य। सहनशीलता के लिये जरूरी है कि हम बहुत से और जीवन मूल्यों को पहले सीखें, जैसे सन्तोष, विवेक और धीरज। सहनशील होना कमजोर होना बिल्कुल नहीं है। यह तो हमारी अपनी परिपक्वता की पहचान है। रहीम दास जी कहते हैं…
जैसी परै सो सहि रहे, कहि 'रहीम' यह देह।
धरती ही पर परग है, सीत, घाम औ' मेह॥
जो कुछ भी इस देह पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए । जैसे, जाड़ा, धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है ।
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इसी श्रंखला में युवाचार्य महाश्रमण जी का एक प्रवचन मैं नीचे लिखता हूँ। आप भी उसका आनन्द लीजिये…
सहना सुखी जीवन की एक अनिवार्य अपेक्षा है। जो सहना जानता है, वही जीना जानता है। जिसे सहना नहीं आता वह न तो शांति से स्वयं जी सकता है और न अपने आसपास के वातावरण को शांतिमय रहने देता है। जहां समूह है, वहां अनेक व्यक्तियों को साथ जीना होता है। जहां दूसरे के विचारों को सुनने, समझने, सहने और आत्मसात करने की क्षमता नहीं होती, वहां अनेक उलझनें खड़ी हो जाती हैं। जितने भी कलह उत्पन्न होते हैं, चाहे वे पारिवारिक हों या सामाजिक, उनके मूल में एक कारण असहिष्णुता है।
मनुष्य में दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो नैसर्गिक रूप से शांत प्रकृति वाले होते हैं, उनके सामने कितनी ही प्रतिकूल स्थिति क्यों न उत्पन्न हो जाए, उनके साथ कैसा भी अप्रिय व्यवहार क्यों न हो जाए, वे प्राय: कुपित नहीं होते। ऐसे व्यक्ति परिवार और समाज के लिए आदर्श होते हैं। हर व्यक्ति उस आदर्श तक न भी पहुंच सके, पर अभ्यास और दृढ़ संकल्प के द्वारा व्यक्ति अपनी आदत को परिष्कृत और परिमार्जित कर सकता है।
मनुष्य के पास शरीर है, वाणी है और मन है। जैन दर्शन की भाषा में इन तीनों की प्रवृत्ति को योग कहा जाता है। इन तीनों का आलंबन लिए बिना शुभ या अशुभ कोई भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। सहनशीलता और असहनशीलता की अभिव्यक्ति का संबंध शरीर, वाणी और मन तीनों के साथ है।
सबसे पहले हम शरीर को लें। कुछ व्यक्ति शरीर से बहुत कठोर श्रम कर लेते हैं, कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो थोड़े से श्रम से भी थकान का अनुभव करने लगते हैं। किसान खेतों में काम करते हैं। वे न धूप की परवाह करते हैं, न छांह की। फिर भी वे स्वस्थ रहते हैं। इसके विपरीत जो एयरकंडीशंड कमरों में रहने के अभ्यस्त हैं, वे मौसम के जरा सा प्रतिकूल होते ही बेचैन हो जाते हैं। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ अंशों में अभ्यास की विभिन्नता भी एक कारण बनती है। शरीर को जिस स्थिति और जिस वातावरण में रखा जाता है, वह वैसा ही बन जाता है। मौसम बदलता रहता है। शरीर हर मौसम को झेल सके, ऐसा अभ्यास होना चाहिए। सर्दी के दिनों में कुछ संत जुकाम के भय से गले पर कपड़ा बांध लेते। आचार्य तुलसी कहते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है। कपड़ा बांधकर रखने से गले का ठंडक झेलने का अभ्यास छूट जाता है। प्रतिरोधात्मक शक्ति कम हो जाती है। फिर थोड़ी-सी ठंडी हवा गले को लगी नहीं कि गला खराब हो जाता है। ऐसा देखा भी जाता है कि जो जितना अधिक ठंडक या गर्मी का बचाव करते हैं, वे उतना ही सर्दी-गर्मी से अधिक प्रभावित होते हैं।
शरीर की तरह मन को भी सहने का अभ्यास होना आवश्यक है। मानसिक असहिष्णुता ही तनाव, घुटन, कुंठा, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता आदि को जन्म देती है। जहां मन की असहिष्णुता चरम सीमा पर पहुंच जाती है, वहां आत्महत्या, परहत्या जैसी जघन्य घटनाएं घट जाती हैं। वर्तमान युग में असहिष्णुता की दर बढ़ती जा रही है। एक छोटा बच्चा भी तनाव की भाषा समझने लगा है। एक बहन ने बताया- मेरा लड़का पांच वर्ष का है। पढ़ाई कर रहा है। उस समय यदि उसे एक गिलास पानी लाने को बोल दूं तो कहेगा- मम्मी! मुझे डिस्टर्ब मत करो। मुझे टेंशन हो जाता है। मानसिक असहिष्णुता आपसी मैत्री की सरिता को सुखा देती है। पिता-पुत्र, सास-बहू व देवरानी-जेठानी के झगड़ों की तो बात क्या, पति-पत्नी के रिश्तों के बीच भी दरारें पड़ जाती हैं। आवश्यक है, मानसिक सहिष्णुता का विकास हो।
सहिष्णुता का एक प्रकार है वाणी की सहिष्णुता। जो व्यक्ति वाणी पर अंकुश रखना जानता है, वह असत्य भाषण से तो बचता ही है, आवेश और उत्तेजनापूर्ण भाषा पर भी नियंत्रण कर लेता है। वह कठोर भाषा नहीं बोलता। भाषा का असम्यक प्रयोग संबंधों में दूरियां बढ़ाती है। चिंतन और विचारपूर्ण व्यक्ति अपनी जबान को अपने वश में कर सकता है।
इस तरह शरीर, मन और वचन इन तीनों योगों को साध लिया जाए तो सहिष्णुता का गुण स्वत: विकसित हो जाएगा। सहिष्णुता का विकास आपकी चेतना में शांति और आनंद का अवतरण करने वाला सिद्ध होगा।
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