Monday, December 8, 2014

गीता जयंती

श्री गीता जयंती जी के इस पुण्य अवसर पर.…

श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान कहते हैं.…

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥

जो मुझे सर्वत्र देखता है (अर्थात हर एक कण में मेरे व्याप्त होने के रहस्य को जानता है) और मुझमें समस्त सृष्टि को देखता है(अर्थात यह जानता है कि सम्पूर्ण सृष्टि मुझमें स्थित है), मैं उसकी दृष्टि से दूर नहीं होता और न ही वह मेरी दृष्टि से दूर होता है।

यही ज्ञान मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम माता शबरी को नवधा भक्ति के रूप में देते हैं और कहते हैं कि भक्ति का सातवाँ प्रकार सारे जगत को राममय देखने में है .…

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।     (अरण्यकाण्ड)

भौतिक जीवन में यह करने में जब कठिन हो जाता है, इन प्रभु ज्ञान पंक्तियों को जो लोग मन में रखते हैं, भगवान उनका पग पग पर मार्ग दर्शन करते रहते हैं।   जब आपका विश्वास भगवान पर और दृढ एवं अटल हो जाएगा, तब आप स्वयं ही निर्भय हो जाएंगे।
 

Tuesday, November 25, 2014

प्रभु लीला

प्रभु श्री राम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं।  श्री भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के दूसरे अध्याय में यह स्पष्ट है कि त्रिगुणी प्रकृति से इस संसार की स्थिति, उत्पति और प्रलय के लिए यही ब्रह्म (परमात्मा) ही विष्णु, ब्रह्मा और रूद्र रूप ग्रहण करते हैं।  इसलिए श्रीराम को बस अवतार न समझ कर उन प्रभु में निर्गुण ब्रह्म को ही देखिए और भक्ति को उस ब्रह्म के साक्षात्कार का साधन। 

आगे लिखा है कि धर्म के ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि ह्रदय में भगवान की लीला-कथाओं में अनुराग का उदय न हो, तो वह निरा कर्म ही है।  आतम ज्ञान बिना नर भटके, कभी मथुरा, कभी काशी।  परमात्मा आपके ह्रदय में ही हैं।  सच्ची भक्ति वही है जिससे ज्ञान और वैराग्य का उदय हो।  ज्ञान भगवान को तत्व से जानने को कहते हैं और वैराग्य आसक्ति के हटने को।   तत्व से जानना अर्थात उनकी कृपा को बहुत कृतज्ञता से देखना और इस जीवन को अंत न समझ लेना।  जीवन के कर्म करते हुए भी फल में आसक्ति का न होना। जो प्रभु दें, उसको सहर्ष स्वीकार करना।  मोह ही अज्ञान है।   मोह सकल ब्याधिन के मूला, तिन्हते पुनि उपजहिं बहु सूला।  इसलिए भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से प्रभु में विश्वास अधिक दृढ होना चाहिए। 

तुलसीदास जी उनकी लीला का सुन्दर वर्णन करते हैं...

प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।  (बालकाण्ड दो० २००)
प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं।।

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।
एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया।।
 
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।
पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा।।
 
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।
माता भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर) पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता।।
 
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।
(वह सोचने लगी कि) यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए।।
 
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।।  (बालकाण्ड दो० २०१)  
फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं।।
 
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे।।
 
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।
सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है।।
 
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।
(माता का) शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए।।
 
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।
(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं।।

नर हो, न निराश करो मन को

मैथिली शरण गुप्त जी की सुन्दर पंक्तियाँ...

नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो, न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को ।

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को ।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को ।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो ।  

Tuesday, August 19, 2014

स्वदेश प्रेम

६८वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की सुन्दर पंक्तियाँ

जो भरा नहीं है भावों से,
जिसमें बहती रसधार नहीं।
 वह हृदय नहीं है पत्थर है,
 जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।

Tuesday, May 6, 2014

निराला ठाठ

भारत जैसा देश न दुनिया में है, और न होगा…

निराशा और रोज़ के झमेलों में लोग यह भूल जाते हैं।    मैं उनसे कहता हूँ कि रोज़ आप आशा से जीवन व्यतीत करें और अपने भारतीय होने के सौभाग्य को याद रखें। 

यह बलिदान की धरती है, इसकी मिट्टी से तिलक करना चाहिये.… सुनिए यहाँ पर

जय हिन्द !!!

Tuesday, January 28, 2014

जीवन कर्म प्रधान

सनातन धर्म के दो मुख्य तत्व हैं --
अभ्युदय (भौतिक समृद्धि) और
निश्रेयस (आत्मिक सुख)
इसका एक अर्थ यह है कि बाहर से संसार और अंदर से सन्यास।    यही जीवन का सत्य है और यही कर्मयोग का सिद्धांत है।   बाहर की समृद्धि (धन, परिवार आदि)  के सुख में आसक्ति नहीं होनी चाहिए।   बस कर्म करते रहना चाहिए और भगवान को समर्पित करना चाहिए। 

तुलसीदास जी  कहते हैं.…
करम प्रधान विश्व रचि राखा  

(जीवन कर्म प्रधान  है,  इसमे फल की चिंता किये बिना कर्म करते रहना चाहिए।  असफलताओं से घबराना नहीं चाहिए जो तात्कालिक ही होती हैं।  )