वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।। (यजुर्वेद ३१.१८)
[उस सूर्य समान तेजस्वी और अंधकाररूपी अज्ञान से परे महान् पुरुष (परमात्मा) को मैनें जान लिया है जिसे जानकर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इससे भिन्न कोई मार्ग ही नहीं है]
सेमल को लाल-लाल सुमन मिले हैं कहाँ से, पीले-पीले ये पुष्प किसने दिए बबूलों को,
तुली तूलिकायें ले ले के सजाता है कौन, सुललित लतिका के कलित दुकूलों को।
'हरिऔध' किसके सजायें ये कलिकायें खिलीं, दे दे दान मंजुल मरंद अनुकूलों को,
ये रंगीन साड़ियाँ तितलियों को कहाँ से मिलीं, कौन रँगरेज रंगता है इन फूलों को।
(अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध" रचित उपर्युक्त ४ पंक्तियाँ)
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।
फिरा भटकता गिरि, गह्वर में, नगर नगर में, डगर डगर में,
भाटन में, वाटन में, घाटन में, वीतिन में, वृक्षन में, वेलन में,
वाटिका में, वन में, घरन में, दिवारन में, देहरी दरेचन में,
हीरन में, हारन में, भूषण में, तन में,
कानन में, कुंजन में, गोधन, गोपालन में,
गोवन में, गावन में, दामिनी में, घन में,
जित देखूं तित मोहे प्रभु ही दिखाई देत,
प्रभु मेरे छाये रहो नैनन में मन में।
फिरा भटकता गिरि, गह्वर में, नगर नगर में, डगर डगर में
किन्तु पास मेरे तुम हरदम, मैं अब तक भी जान न पाया मैं तुमको
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।
रवि-शशि से पदार्थ चमकाये, अन्न-औषध फल-फूल उगाये
विविध रंगों के फूल लगते भवीले, कैसे अलबेली प्रकृति न टिकी हर साड़ी पे
ज्ञानचक्षु खोल प्रभु महिमा अपार देखो, है न सारे कौतुक ये चेतन अनाड़ी को
बिना घड़ीसाज के न बनती प्रकाश घड़ी, चालक बिना न चलते हैं चक्र गाडी के
बिना वृक्ष बीज बिना तिल कब तेल होता, है न सारे कौतुक ये चेतन खिलाड़ी के।
रवि-शशि से पदार्थ चमकाये, अन्न-औषध फल-फूल उगाये
तुम समान इस जग में कोई दाता दयानिधान न पाया मैं तुमको
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।
जल से धोया मल मल कर तन, धोया नहीं कभी कलुषित मन।
अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुद्धयति।
विद्यातपोभ्याम भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति।। (मनुस्मृति ५.१०९)
[शरीर जल से, मन सत्य से, जीवात्मा विद्या व तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है]
मन सा न जग में प्रकाश कोई सच्चा मित्र, मन सा न और कोई शत्रु हुड़दंगा है,
मन से ही रीत प्रीत, मन से ही शान्ति गीत, मन से ही कलह कपट द्वेष दंगा है
मन ही मिलाता ईश, मन ही दिलाता मुक्ति, मन ही तो डालता सुकर्म में अड़ंगा है
मन है मरीज तो लजीज कोई चीज नहीं, मन यदि चंगा तो कठौती में ही गंगा है।
जल से धोया मल मल कर तन, धोया नहीं कभी कलुषित मन
धुल जाते त्रयताप ज्ञान की गंग में कर स्नान न पाया मैं तुमको
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता पत्ता।
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम ।। (यजुर्वेद ४०.१)
[इस जगत में सब कुछ ईश्वरमय है, अपने पालन के लिए इसका उपभोग बिना लोभ और आसक्ति से करें]
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता पत्ता
शिशु की बोली में, कोकिल की मधुर कूकों में,
प्रेमी पपीहा की पीपी मयूर हूकों में,
शैल शिखरों में, गगन के विशाल आँगन में,
सिंधु सरिता में, सरोवर में, नगर में, वन में,
नम्र शर्मीले नयन में, पवित्र यौवन में,
हीर प्रणवीर में, दुखिया मजूर निर्धन में,
समा रहा है और मुस्कुरा रहा है जो
नाच सबको ही नित नये नचा रहा है जो
जिसने पानी से भरा है रुहीसी बदरी को
दे दी है जिसने चपलता वाह चमके बिजली को
ईख को दी मिठास और खटास इमली को
रंग दिया है जिसने फूलों को और तितली को
पत्ते पत्ते की न्यारी न्यारी ये कतरन कैसी
हाँथ में जिसने अपने ली नहीं कभी कैंची
रीछ के तन में किया फिट क्या बालों का चोंगा
उम्र भर जो न फटेगा और न छोटा होगा
सिर्फ कुक्कुट के रखा लाल ये मुकुट जिसने
किया लघु बीज से पैदा विशाल वट जिसने
सीप कैसी चमकती आँख बनायी कैसे
बीच में रख दी है तबले जैसी स्याही कैसी
साथ ही इसको वो प्रकाश भी प्रदान किया
दिखाई छोटे से एक तिल में आसमान दिया
जान भी डाल दी इस पञ्चतत्व पुतली में
एक कौड़ी भी न ली इस दया के बदले में
नाम को भी जिसने जलाया न, मशाल, दिया
अँधेरे घर में बैठ वाह क्या कमाल किया
जन्म से पहले ये कौतुक ही बेमिसाल किया
दूध बच्चे की माँ के उर में जिसने डाल दिया
सबको करनी का यथायोग्य जो फल देता है
सदा निष्पक्ष न रिश्वत किसी से लेता है
एकरस है जो जन्मता न मरा करता है
सदा कल्याण का झरना जो झरा करता है
सूखी खेती को जो पल भर में हरा करता है
कीड़ कुञ्जर सभी का पेट भरा करता है
विश्व का चक्र ये जिसके नियम में चलता है
भोर उगता है सूरज सांझ समय ढलता है
पवन बहता है ये पावक प्रचंड जलता है
सिंधु भी देख लो मर्यादा से न टलता है
जिसकी सत्ता के बिना पत्ता तक न हिलता है
जिसकी सत्ता के बिना फूल भी न खिलता है
सारे ब्रह्माण्ड को जो आप किये धारण है
जो कि त्रयताप हरण और तरण-तारण है
जिसका सुमिरन ही सभी विघ्न भय निवारण है
भूल जाना ही जिसे सब दुखों का कारण है
जिसके आगे किसी स्वर्ग बहार कुछ भी नहीं
चक्रवर्ती स्वराज नेहसार कुछ भी नहीं
जिसके आगे कुबेर धन अपार कुछ भी नहीं
जिसके आगे किसी सुंदर का प्यार कुछ भी नहीं
आग चकमक में है जैसे हवा गगन में है,
लाली मेहंदी के पाक में, महक सुमन में है,
जैसे मक्खन दही में, पुतली ज्यों नयन में है,
वैसे ही वो प्रकाश प्राणियों के मन में है।
अखिल विश्व में व्यापक सत्ता, साक्षी दे रहा पत्ता-पत्ता
पाया पता प्रकाश तुम्हारा, तो फिर अपना पता न पाया मैं तुमको
पहचान न पाया मैं तुमको, पहचान न पाया मैं तुमको।।
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