Saturday, July 19, 2008

सुंदरकाण्ड दोहा ४
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिय तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है।

सुंदरकाण्ड दोहा १४ चौपाई ३ (सीता जी को हनुमान जी भगवान राम का संदेश सुनाते हैं...)
कहेहुं तें कछु दुःख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
मन का दुःख कह डालने से कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे ? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥

सुंदरकाण्ड दोहा १४ चौपाई (हनुमान जी सीता जी को समझाते हैं...)
कह कपि हृदय धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥

उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनी मम बचन तजहु कदराई॥
हनुमान जी ने कहा - हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीराम जी का स्मरण करो। श्रीरघुनाथ जी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥

सुंदरकाण्ड दोहा १५ चौपाई ४ (सीता जी के मन में छोटे वानरों की सेना देखकर संदेह आ जाता है...)
मोरे ह्रदय परम संदेहा॥ सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता जी कहती हैं - अतः मेरे ह्रदय में भारी संदेह होता है कि तुम जैसे बन्दर राक्षसों को कैसे जीतेंगे! यह सुनकर हनुमान जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का अत्यन्त विशाल शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के ह्रदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यन्त बलवान और वीर था॥

सुंदरकाण्ड दोहा १९ चौपाई २
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
शिव
जी पार्वती जी को यह कथा सुना रहे हैं कि जब अशोक वाटिका में हनुमान जी ने उत्पात मचा दिया था, तब रावन से मेघनाथ को भेजा जिसने ब्रह्मास्त्र चला दिया उन पर । हनुमान जी ने उस अस्त्र की गरिमा के लिए उसको अपने ऊपर स्वीकार किया और मेघनाथ उनको बाँध कर ले गया। तो शिव जी कहते हैं... हे भवानी! सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमानजी ने स्वयं अपने को बंधवा लिया॥

सुंदरकाण्ड दोहा २२ चौपाई ३ (हनुमान जी रावन को समझाते हैं...)
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाई रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
रामविमुख पुरूष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना ना पाने के बराबर है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है (अर्थात जिन्हें केवल बरसात का आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुंरत ही सूख जातीं हैं॥

2 comments:

Anonymous said...

kuchh tumney bhi Hanuman ji ki tarah swayam apney ko bandhwa liya aur brahmah astr jaisay ko apney ooper sweekaar ker dikhaya hay. It is believed - Bhagwan Shiv with Parvati, Ram with Sita sda aisay Hanumaan ji kay deciple ko awashya sukh ki barsat pradaan kerengay.

Anonymous said...

Ram Parivaar ki murti rakhney aur upasna kerney waley ko kaheen bhi Ramvimukh Ravan jaisee chhavi ka samna kerna padey durbhagyavash, toe uskay mun mein bhayanker akanksha chha sakti hay,aur Ramvimukh insaan dikhtey rehnay ka abhas bar bar mustiksh mein aata rehta haey.
hay taat! shun mart ka satsang prapt ho jaey jo vastav mein swrg aur moksh kay sukhon say ooper hay