Wednesday, April 22, 2009

Interesting article on Gun Milap

I found an neatly-edited article about Gun Milap on the web. The unique thing it teaches on how to calculate the individual Kutas as well, besides a sum of all 7 of them. Take a read by clicking here.

Some of you may not believe in these things at all. I respect your opinion that way. But, I must say that many ancient jyotish calculations are based on very accurate calculations based on movement of planets. In high-school we study about the gravitational forces, depicted by constant 'G'. So, at least, believe that big bodies do influence other bodies in this universe. Interestingly, Vimshottari dasha is also calculated based on such influences. If you want to do some research on it, you will find out how it is calculated. Most pundits agree that Vimshottari dasha is one such calculation that is very close to being amazingly accurate, if analyzed properly.

Monday, April 20, 2009

Infant of the zodiac

People ask me why I call myself an optimist on this blog. Besides telling them that I am one, I tried to find out why it is so.

Was it because of life circumstances while growing up, or something more profound as effect of planets on me? It surprisingly comes very close. I have been brought up in the environment where people have set very proud examples to come out of extreme hardships or difficult life situations, even before my birth. On the other hand, it could be that the planet Mars (Lord of Aries) just had enough influence during my birth and I absorbed the flavor of the infant of the zodiac. Remember, how an infant is. A baby is very optimistic that he will get what he wants. The baby gets upset one moment and then forgets and smiles the next moment. The star signs possibly inculcate those instincts in any of its members they influence.

When I was a baby, my mother tells a story that when I got a bit stubborn for something that she didn't want to give, I will keep crying for 5 minutes, sitting close to her. Then, the next moment I will get distracted by a big ant crawling on the floor and stop crying. My mom used to just smile at that.

That was then. Now, that I have grown up, I don't do that anymore. :-) Part of the optimism comes from my strong belief that God has made me capable to achieve anything. But, if I keep asking, he is just going to laugh at it. Karm Yog teaches us that we are bound by our karmas, on which we have the control and not on the outcome. So, why not see the silver lining on every cloud you see. Too often people take events negatively or think of something that happened to them as bad part of destiny. Think of Geeta, you'll get only that much what you have been assigned. So, why worry and waste the precious life!!

Every human has hidden sleeping inner powers that can be harnessed to achieve anything. These powers put optimism and resilience in you that can sail you through any storm. So, go for it.

Saturday, April 11, 2009

Saturday, April 4, 2009

Ancient laws of marriage

I found something online that was compiled from multiple texts on marriage. Read and judge for yourself: http://www.hindujagruti.org/hinduism/knowledge/article/which-factors-are-considered-while-arranging-marriage.html

Friday, April 3, 2009

सत्य का भ्रम

दो बहुत ही सुंदर कहानियाँ, एक रामायण से और एक महाभारत से, मैं आपको सुनाता हूँ। दोनों ही कहानियाँ इस बात को बताती हैं कि आंखों देखा और कानों सुना भी हर समय सम्पूर्ण सत्य नहीं होता। इसलिए कभी कभी स्वयं अपने अनुभव को भी बुद्धि और विवेक के तराजू में तौल लेना चाहिए।

१. भीम-हनुमान संवाद (महाभारत)
एक बार जब कुंती-पुत्र भीम जंगल से जा रहे थे, तभी रास्ते में एक बूढा बंदर बैठा हुआ देखते हैं जिसकी लम्बी पूँछ रास्ते में पड़ी हुई थी। भीम उसको लाँघ कर नहीं जाना चाहते थे और अंहकार में बन्दर से पूँछ हटाने के लिए कहा। बंदर ने कहा, स्वयं ही हटा दीजिये, मुझमें ताकत नहीं है। भीम ने लाख कोशिश की, लेकिन पूँछ नहीं हिली। तब क्षमा मांगने पर हनुमान जी प्रगट हुए। वो बोले...निर्बल और वृद्ध का आदर करना चाहिए और जो आँखें देखती हैं, वह सदा सत्य नहीं होता। जैसे भीम ने बन्दर को बूढा जानकर उसको अंहकार दिखाया और चुनौती दी। परन्तु उस चुनौती से हार स्वयं भीम की ही हुई। इसलिए, हमेशा सत्य को पहचानने की कोशिश करो।

२. शिव-सती संवाद और सती की राम-परीक्षा
इस कथा में मैं आपको तुलसीदास जी की राम चरितमानस के ही शब्द सुनाता हूँ, क्योंकि उससे सुंदर वर्णन तो यहाँ सम्भव ही नहीं...

एक बार भगवान् शिव अपनी पत्नी सती जी के साथ अगस्त्य मुनि (कुम्भज) के आश्रम में गए और राम कथा विस्तार से कही और सुनी। उन्ही दिनों भगवान् राम वनवास लेकर अपने भाई लक्ष्मण के साथ दंडक वन में रहते थे। रावण द्वारा सीता हरण हो चुका था, इसलिए वो बहुत व्याकुल रहते थे। इधर शिव जी राम के दर्शन के लिए अति विभोर थे। दोनों का एक दूसरे के प्रति प्रेम तो जग प्रसिद्द है। केवल वे ही राम जी की मनुष्य लीला को समझते थे। तुलसी जी कहते हैं...

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाके। देखा प्रगट बिरह दुखु ताँके॥
श्रीरघुनाथ जी मनुष्यों की भांति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते फिर रहे हैं। जिनके कभी संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया है।

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयं धरहिं कछु आन॥
श्रीरघुनाथ जी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुंचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेषरूप से मोह के वश होकर ह्रदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं।

उसी अवसर पर शिवजी ने श्रीराम को देखा और उनके ह्रदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न होता है। किंतु अवसर ठीक न जानकर उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया, ताकि सब लोगों को श्रीराम का भेद न पता चल जाए। 'जगत को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो' ऐसा कह कर शिवजी चल देते हैं। वे बार-बार आनंद से पुलकित होकर सतीजी के साथ चले जा रहे थे। जब सतीजी ने शम्भु जी की यह दशा देखी, तो उनको बहुत संदेह हुआ। वे सोचने लगीं कि शिवजी जिनको सारा संसार पूजता है, उन्होंने एक राजा के पुत्र को सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया और प्रेम में इतने पुलकित हो गए! और फिर विष्णु जी जो शिवजी की ही तरह सर्वज्ञ हैं, वे क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजते फिरेंगे? सतीजी जानतीं थीं कि शिवजी का वचन मिथ्या नहीं हो सकता। लेकिन संदेह दूर नहीं हो रहा था...

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
यद्यपि भवानी जी ने कुछ नहीं कहा, पर शिवजी उनके मन की बात जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्रीस्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए।

लेकिन जब सतीजी बार-बार समझाने पर नहीं मानीं, तब शिवजी मुस्कुराते हुए बोले-तुम जाकर उनकी परीक्षा क्यों नहीं ले लेतीं, तब तुम्हें स्वयं पता चल जाएगा। इस पर सतीजी सोचने लगीं कि कैसे मैं श्रीराम की परीक्षा लूँ। तब...

पुनि पुनि हृदयं बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥
ऐसा विचार करके उन्होंने सीता का रूप बनाया और जिस रास्ते पर श्रीराम जा रहे थे, उसी पर चल पड़ीं।

लक्ष्मण जी उनको (सीता रूप) देख कर चकित हो गए और भ्रम में पड़ गए। लेकिन वे श्रीराम के प्रभाव को जानते थे। और फिर सीताजी को तो रावण हर ले गया था, तो वे वहां कैसे दिखतीं। लेकिन श्रीराम तो सब जानते थे...

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
सब कुछ देखने वाले और सबके ह्रदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्रीरामचंद्रजी सती के कपट को जान गए। जिनके स्मरणमात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्रीरामचंद्र जी हैं।

तब श्रीरामजी हंसकर कोमल वाणी से बोले-
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू।
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिनि अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
प्रभु ने हाँथ जोड़कर प्रणाम किया और अपना नाम पिता नाम सहित बताया। फिर कहा कि बृषकेतु (शिव) जी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रहीं हैं?

ऐसा सुन कर पार्वतीजी को बहुत लज्जा आई और शिवजी के पास वापस चली आयीं। आगे शिव जी को भी बहुत संताप हुआ और उन्होंने पार्वतीजी को त्याग दिया क्योंकि उन्होंने परीक्षा के लिए सीता जी का रूप धारण किया था, जो उनके प्रिय राम की पत्नी का रूप था। इसके आगे बाद में बताऊंगा या आप बालकाण्ड में दोहा ५४ से आगे पढ़ लीजियेगा।

इस कहानी का तात्पर्य भी यही है कि हर बार अपने अनुभव में जो कुछ भी आता है या दिखता है, वह जरुरी नहीं कि सत्य ही हो। फिर भी हमें अपना अहम् और विवेक की कमी उसको सत्य मानने पर विवश अवश्य कर देता है। जीवन के अनेक इस तरह के अवसरों पर सत्य को पहचानना सीखिए, तो बहुत से दुखों से सहज ही छुटकारा मिल जाएगा।