Sunday, March 22, 2009

मान

(Some parts adopted from lectures...)
मान एक ऐसा तत्व है जिससे सारा प्राणिजगत प्रेम करता है। बखान इसका चोबदार है। यह प्रशंसा के सहारे सीधा खड़ा रहता है। इर्ष्या, असूया और क्रोध प्रशंसा इसकी संतति-प्रजा हैं जो इसके चारों ओर चाटुकार होकर रहती हैं। अभिमान का उद्भव अन्तर में होता है, किंतु वह अशरीरी है। स्थूल न होने के कारण बाहर दिखाई नहीं देता। भ्रांतचित्त (Confused) और क्रोध जैसे मनोविकारों से उसका पता चलता है। अभिमान जन्म से ही अँधा होता है। वो केवल अपने आप को टटोलकर छू सकता है। और बस इसीलिए, वो अशक्त और असहाय होता है और हर आहट पर डर जाता है कि कोई कहीं उसकी घात में तो नहीं है। वो अपने छोटे छोटे घावों को भी भुला नहीं पाता। वो अपनी हर हार को विजय ही मानता है और उसको इस जीवनरुपी महाभारत के लिए निहत्थे नारायण के बजाय निपुण नारायणी सेना को चुनने में ही अपना फायदा नज़र आता है। अंहकार को अपने ही विरुद्ध सारे द्वार बंद करने वाला बताया गया है।

भगवान् वेदव्यास जी ने कहा है (महाभारत आदिपर्व ९०/२२) --

तपश्च दानं च शमो दमश्च ह्रीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा।
नश्यन्ति मानेन तमोअभिभूताः पुंसः सदैवेति वदन्ति सन्तः॥

तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता तथा सब प्राणियों पर दया -- ये सातों सुख के द्वार हैं। ये द्वार अभिमानरूपी अन्धकार से आच्छादित हो जाते हैं, तब प्राणिमात्र का सुख उससे छिन जाता है।

मानी को मान न मिलने पर वह मन में व्याकुल रहता है। मन का साम्राज्य तो केवल जीवमात्र तक ही रहता है। अभिमान को सर्वनाश करने वाला कहा गया है। विदुरनीति (३/५०) में कहा गया है कि

जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्रनान धर्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलामनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः॥

वृद्धावस्था रूप का हरण कर लेती है, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, निंदा धर्माचरण को, क्रोध शोभा को, दुष्टों की संगति उत्तम स्वभाव को , काम लज्जा को और अभिमान सारे गुणों को नष्ट कर देता है।

इसी अभिमान के कारण बड़े राजाओं, ऋषियों, देवों का भी पतन हुआ है। परन्तु इस अभिमान का मन में आना बहुत ही सहज है। शास्त्र कथाओं में बताया गया है कि बहुत बार हनुमान और नारद जैसे अनन्य भक्तों को भी अभिमान आया है। जैसे लोहे को गलाकर उसके औजार बनाये जा सकते हैं। उसी तरह अपने मन के अंदर के इस सर्वसाधारण विकृति को प्रयत्न से अच्छे रूप में बदला जा सकता है, अगर नम्रता का संस्कार पा लिया जाए तो। यदि अपमान का बहुत अधिक बुरा लगे, तो अपने अंदर मान का गृह समझना चाहिए। मान-बड़प्पन का सुख अपनी ही जीवनशक्ति सोख लेता है। प्रशंसा मान की खुशामद होती है और उसको बढाती जाती है। यह ऐसा दुर्गुण है जिसे मनुष्य मर जाता है, तब भी नहीं छोड़ पाता। कबीर दास जी कहते हैं,

कबीरा गर्व न कीजिए, चाम लपेटी हाड़।
एक दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उजाड़॥

सारे शास्त्रों में मान को दूर करने का एक ही उपाय बताया है और वह है नम्रता। नम्रता में आदमी अपने आप को दूसरों से बड़ा नहीं मानता। सद्गुणों का आगमन नम्रता से ही होता है। जैसे जब पेडों में फल लग जाते हैं, तब वह झुक जाता है। उसी तरह जब व्यक्ति में सद्गुण आ जाते हैं, तब वो विनम्र हो जाता है। मनुस्मृति में मनु ऋषि कहते हैं, जो सबका अभिवादन करता है, शील होता है, वृद्धजनों की सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और आत्मबल ये चारों बहुत बढ़ जाते हैं। इसलिए विनम्रता ही सबसे बड़ा सद्गुण माना गया है।

भय -- एक विकृति

आज एक अक्षरपीठ की पुस्तक पढ़ते समय बहुत ही अच्छा प्रवचन दिखा, जो भय के बारे में बताता है। इस संसार में भय तो सभी के अंदर रहता है। स्वामी जी कहते हैं... भय के ३ प्रकार होते हैं -- सामाजिक भय (किसी कृत्य के उजागर होने पर), प्रकृतिगत भय (स्वभाव से डरपोक होने पर, मृत्यु भय आदि) और आध्यात्मिक भय (भगवान देख रहे हैं जानकर कुमार्ग पर चलने का डर)। इनमें से अपयश का भय सबसे बड़ा होता है। भय की शक्ति अपार होती है क्योंकि वह मन को ग्रसित कर लेता है और मन से शक्तिवान तो और कुछ भी नहीं होता इस संसार में। मन में काल्पनिक द्रश्य आने लगते हैं, प्राणी विवेक खो बैठता है और ग़लत कार्य कर बैठता है। इसीलिए भय को एक बड़ी मानसिक विकृति कहा गया है।

इस अवस्था में निर्भय होने का सरल उपाय भगवान् की भक्ति में है और उनके शरणागत होने में हैं। ४ प्रकार के भक्तगण होते हैं जिनको भय नहीं होता --
विश्वासी -- इस भक्त ने भगवान् और उनके साधु के वचन में अतिशय विश्वास प्राप्त कर लिया हो। उसे भय नहीं रहता।
ज्ञानी -- आत्मज्ञान का बल होने और अपने को भगवत्भक्त और ब्रह्मस्वरूप मानने वाले भक्त को भी भय नहीं रहता।
शूरवीर -- इन्द्रियों और अंतःकरण पर विजय प्राप्त करके इस भक्त ने परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन न करने का प्रण करके अपने को कृतार्थ मन हो। इसलिए वोह भयमुक्त रहता है।
प्रीतिवान -- इस भक्त को तो पतिव्रता की दृढ़ भक्ति और समझ होती है। जैसे पतिव्रता स्त्री की प्रीति और मन की दृढ़ता पर भगवान भी नतमस्तक हो जाते हैं, वैसा ही प्रेम वह इस भक्त के साथ भी करते हैं और उसे भयमुक्त करते हैं।

लगातार अभ्यास और श्रद्धा से ही भय से मुक्ति मिलती है। इसके लिए परिश्रम करते रहना चाहिए। विघ्न बाधाओं से डरकर कर्तव्य नहीं छोड़ने चाहिए। यही धर्म की नीति है। शास्त्री जी एक श्लोक कहते हैं...

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै: प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नै: पुनःपुनरपि प्रतिहन्यमाना: प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति॥

अर्थ: कनिष्ठ पुरूष विघ्न के भय से कार्य आरम्भ ही नहीं करते। मध्यम पुरूष कार्य आरम्भ तो करते हैं, किंतु विघ्न आने पर छोड़ देते हैं। और उत्तम पुरूष बार-बार विघ्न आने पर भी आरम्भ किए हुए कार्य को अधूरा नहीं छोड़ते।

भय का मन में आना स्वाभाविक है। लेकिन यह विचार मन में रखना चाहिए, कि हमारे जीवन का असली लक्ष्य क्या है। कभी कभी मायाजाल में फंसकर हम इस असली लक्ष्य पर से नज़र हटा लेते हैं और मन के भ्रम में भटक जाते हैं। यदि हमको यह समझ में आ जाए और हर समय उसका भान रहे, तो किसी भी चीज का भय नहीं रहेगा। भय का असली तोड़ यही श्रद्धा है जो हमारे अपने विश्वास में होती है कि किसी भी परिस्थिति में भगवान् हमारा साथ नहीं छोडेंगे।

Friday, March 20, 2009

The Chariot of Life (जीवन रथ)

अधिक प्रीति भी मन में संदेह पैदा कर देती है और हम अपने प्रिय लोगों को कमजोर समझने लगते हैं। ऐसा ही कुछ विभीषण के साथ हुआ, जब राम और रावण युद्ध शुरू हो रहा था। किंतु राम जैसे परम ज्ञानी और धीर-वीर को भला क्या निर्बलता होती। ऐसे में ही भगवान राम जीवन के गूढ़ रहस्य को बताते हैं। बहुत ही सुंदर शब्दों में प्रभु जीवन का सार बताते हैं और कहते हैं... इस जीवन में बुराइयों पर विजय पाने की शक्ति हमारे अपने अंदर ही है, बस हमें अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हुए सत्संग और साहस के साथ दिनचर्या व्यतीत करनी चाहिए।

देखिये और सुनिए यह पंक्तियाँ रामचरितमानस की (लंकाकाण्ड दोहा ७९) - राम-विभीषण संवाद :

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा सँदेहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा॥
Seeing Ravan on a chariot and Ram on foot, Vibhishan was most disconcerted. His extreme love for the lord made him doubtful; he bowed to Ram and spoke most tenderly...

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
Dear lord, you have no chariot, nor any protection armour and you are bare foot. How, then, can you conquer this mighty stalwart (Ravan)? Then, Ram says, dear friend, The Chariot (स्यंदन/रथ) which leads one to victory (over maladies), is of another kind.

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
Valour and Fortitude are the chariot's two wheels; Truth and Vituous Conduct are its abiding flag and pennant; Strength, Discretion, Self-control and Benevolence are its four horses; Forgiveness, Compassion and Equipoise in all circumstances are its reins that harness the horses.


ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
The Worship of God is its skilled charioteer; Dispassion is his shield and Contentment is his sword; Charity is his axe and Reason is his fierce power; Highest Wisdom is his relentless bow.


अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
A Pure, Steady Mind is his quiver; Restraint, Serenity and Duties are his arrows; Worship of Guru and Brahmins is his impenetrable armour; There is no other way to ensure victory than this.

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें॥
My friend, he who rides this chariot of Dharma, has no enemy left to conquer in whole world, let alone Ravan.

Tuesday, March 17, 2009

गुरु गुण

सब धरती कागद करे, लेखनी सब बनराय।
सात समुन्दर की मसि करे, गुरु गुण लिखा न जाय॥




















(May you turn all earth into reams of paper, forest into your pen; And the seven seas into your ink, Still the glory of a guru is hard to script.)
Pic: "Ram & Brothers in Gurukul" (Enjoy the lecture from Guru Vashisth here!!)