Friday, May 6, 2011

तप के प्रकार (भगवदगीता)

जीवन का तप मात्र वन में जाकर ध्यान समाधि लगाने से ही नहीं होता है। जीवन के प्रत्येक आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास) में तप किया जा सकता है। धर्म के बताये मार्ग पर चलते रहकर दृढ अनुशासन से हमेशा कठिन प्रयत्न करते रहना भी तप है। तप से व्यक्ति में विशेष उत्साह और शक्तियां आती हैं। इनका पालन करने से तपोबल आता है, जो कठिन लक्ष्यों को भी अपने प्रभाव से आसान बना देता है।

भगवान् कृष्ण ने गीता में अपने अनमोल वचनों में तप के विभिन्न प्रकार बताये हैं -- शरीर-संबंधी तप, वाणी-संबंधी तप और मन-संबंधी तप ।

१. देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥ (गीता १७/१४)
देव, विप्र, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा -- यह शरीर-संबंधी तप कहलाते हैं।

२. अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥ (गीता १७/१५)
उद्वेग (क्षोभ) न पैदा करने वाला, सत्य, प्रिय और यथार्थ बोलना, वेद-शास्त्रों को पढना और परमात्मा का नाम जपना -- यह वाणी-संबंधी तप कहलाते हैं।

३. मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥
(गीता १७/१६)
मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवान् का चिंतन करते हुए कर्म करना, मन पर नियंत्रण और अंतःकरण की पवित्रता -- यह मन-संबंधी तप कहलाते हैं।

पात्र की योग्यता

कुछ चीजों पर समय नहीं बर्बाद करना चाहिए क्योंकि उन पर प्रयत्न विफल ही हो जाता है। इनमें ओछे लोगों की मित्रता भी एक है। रहीम जी ने एक दोहे में कहा है...

रहिमन ओछे नरन से बैर भली न प्रीत।
काटे चाटे स्वान के दोउ भांति विपरीत॥

इसका अर्थ है कि ओछे लोगों, जिनकी कथनी और करनी विश्वास के योग्य नहीं है, से न तो दोस्ती भली है, न ही दुश्मनी भली। जिस प्रकार कुत्ते के काटने (दुश्मनी) और चाटने (स्नेह) दोनों में ही अपना नुक्सान हो सकता है, उसी प्रकार ओछा व्यक्ति आपसे स्नेह करके भी आपको धोखा दे सकता है।

इसी सन्दर्भ में तुलसीदास जी ने कहा है कि केले (कदरी) के पेड़ में कितना भी पानी डाल दो, वह तभी फल देता है जब उसको काट दो। उसी तरह नीच तभी मानता है जब उसको डांटना पड़े।

काटेहि पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोइ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥
(सुन्दरकाण्ड दो० ५८)

इसी प्रकार कुछ तरह के लोगों पर समय नहीं बर्बाद करना चाहिए। इनमें से तुलसीदास जी कहते हैं...

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुन्दर नीती॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
(सुन्दरकाण्ड दो० ५७ चौ० २/३)

मूर्ख से विनती, धूर्त से स्नेह, स्वाभाविक कंजूस से उदारता की बातें, ममता में फंसे हुए से ज्ञान की बातें, बहुत लालची से वैराग्य की बातें, क्रोधी से शांति और कामी से भगवान् की कथा का फल वैसा ही होता है, जो बंजर धरती में बीज बोने से होता है। इनका परिणाम व्यर्थ ही होता है।