Friday, July 25, 2008

आपने बहुत से लोगों को देखा होगा, जो देखने में सादगी से भरे हुए पर चेहरे पर चमक और विचारों में ताजगी होती है। इस बारे में गायत्री महाविज्ञान में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं... कि साधना करने वाले लोग अपने तप, श्रद्धा और विश्वास से सिद्धि की प्राप्ति कर लेते हैं। हनुमान चालीसा में कहा गया है कि हनुमान जी को अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त थीं, जो कठोर साधना के बाद मिलती हैं। गायत्री महाविज्ञान कहता है...जिन लोगों को यह सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उनमे यह लक्षण आ जाते हैं:

* शरीर में हल्कापन और मन में उत्साह होता है। उनका व्यक्तित्व आकर्षक, नेत्रों में चमक, वाणी में बल, चेहरे पर प्रतिभा, गंभीरता तथा स्थिरता होती है, जिससे दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
* शरीर में से एक विशेष प्रकार की सुगंध और दैवी तेज की उपस्थिति प्रतीत होती है।
* त्वचा पर चिकनाई और कोमलता का अंश बढ़ जाता है।
* तामसिक आहार-विहार से घृणा बढ़ जाती है और सात्विक दिशा में मन लगता है। सुख के समय वैभव में अधिक आनंद न होना और दुःख, कठिनाई और आपत्ति में धैर्य खोकर किम्कर्तव्यविमूढ न होना उनकी विशेषता होती है।
* स्वार्थ का कम और परमार्थ का अधिक ध्यान रहता है।
* नेत्रों से तेज झलकने लगता है। वह अपनी तपस्या, आयु या शक्ति का एक भाग किसी को देकर लाभान्वित कर सकता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों पर 'शक्तिपात' कर सकते हैं।
* किसी व्यक्ति या कार्य के विषय में वह जरा भी विचार करता है तो उसके सम्बन्ध में बहुत सी ऐसी बातें स्वयमेव प्रतिभाषित होती हैं जो परीक्षा करने पर ठीक निकलती हैं।
* दूसरों के मन के भाव जान लेने में देर नहीं लगती।
* भविष्य में घटित होने वाली बातों का पूर्वाभास होने लगता है।
* उसके द्वारा दिए हुए शाप या आशीर्वाद सही होने लगते हैं। अपनी गुप्त शक्तियों से वह दूसरों का बहुत लाभ या अंतरात्मा से दुखी होने पर शाप देकर विपत्तियाँ ला सकता है।

पापों का नाश आत्मतेज की प्रचंडता से होता है। यह तेजी जितनी अधिक होती है उतना ही संस्कार का कार्य शीघ्र और अधिक परिमाण में होता है।

Saturday, July 19, 2008

सुंदरकाण्ड दोहा ४
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिय तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है।

सुंदरकाण्ड दोहा १४ चौपाई ३ (सीता जी को हनुमान जी भगवान राम का संदेश सुनाते हैं...)
कहेहुं तें कछु दुःख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
मन का दुःख कह डालने से कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे ? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥

सुंदरकाण्ड दोहा १४ चौपाई (हनुमान जी सीता जी को समझाते हैं...)
कह कपि हृदय धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥

उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनी मम बचन तजहु कदराई॥
हनुमान जी ने कहा - हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीराम जी का स्मरण करो। श्रीरघुनाथ जी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥

सुंदरकाण्ड दोहा १५ चौपाई ४ (सीता जी के मन में छोटे वानरों की सेना देखकर संदेह आ जाता है...)
मोरे ह्रदय परम संदेहा॥ सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता जी कहती हैं - अतः मेरे ह्रदय में भारी संदेह होता है कि तुम जैसे बन्दर राक्षसों को कैसे जीतेंगे! यह सुनकर हनुमान जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का अत्यन्त विशाल शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के ह्रदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यन्त बलवान और वीर था॥

सुंदरकाण्ड दोहा १९ चौपाई २
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
शिव
जी पार्वती जी को यह कथा सुना रहे हैं कि जब अशोक वाटिका में हनुमान जी ने उत्पात मचा दिया था, तब रावन से मेघनाथ को भेजा जिसने ब्रह्मास्त्र चला दिया उन पर । हनुमान जी ने उस अस्त्र की गरिमा के लिए उसको अपने ऊपर स्वीकार किया और मेघनाथ उनको बाँध कर ले गया। तो शिव जी कहते हैं... हे भवानी! सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमानजी ने स्वयं अपने को बंधवा लिया॥

सुंदरकाण्ड दोहा २२ चौपाई ३ (हनुमान जी रावन को समझाते हैं...)
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाई रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
रामविमुख पुरूष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना ना पाने के बराबर है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है (अर्थात जिन्हें केवल बरसात का आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुंरत ही सूख जातीं हैं॥

Tuesday, July 15, 2008

Quotes

Only one who devotes himself to a cause with his whole strength and soul can be a true master. For this reason mastery demands all of a person."
- Albert Einstein

I have only one counsel for you - be master.
- Napoleon Bonaparte