Monday, August 31, 2009

आस्तिक जीवन और कर्म योग

आजकल की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में सभी को तुंरत परिणाम चाहिए होता है। इसीलिए जब इच्छानुरूप फल नहीं मिलता है, तब कोई भी यह मानने लगता है कि भगवान् नहीं होते हैं, या भगवान् नहीं सुनते हैं। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि भगवान् ही तो उनकी परीक्षा ले रहे हैं। यह बात भूलने वाली नहीं है कि हमको कर्मफल भुगतना ही पड़ेगा, चाहे वह इस जन्म के कर्मों का हो, या फिर पिछले जन्मों का। उसमें हम तर्क से जवाब नहीं पा सकते हैं। सोचिये...जिस कन्या के मामा स्वयं श्रीकृष्ण थे, जिसके पूर्वज भविष्यदर्शी वेद व्यास जी और इच्छा-मृत्यु वरदान वाले पितामह भीष्म थे, उस अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा को विधवा होने से कोई भी नहीं बचा सका था।

वैसे तो भगवद्गीता को सभी पढ़ सकते हैं, लेकिन जब भी पढें, तो उसके श्लोकों के भाव और अर्थ दोनों पर थोडी देर विचार करें। किसी भी अच्छे साहित्य को समझने का यही बढ़िया तरीका है। सिर्फ़ पुस्तक ख़तम करने के लिए ही न पढें। मेरे पास एक गीताप्रेस* का सबसे छोटा संस्करण "श्रीमद्भगवद्गीता (श्लोकार्थसहित)" है, जिसमे अध्याय ९ के २६वें श्लोक में श्रीकृष्ण जी कहते हैं...

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसाहित खाता हूँ।

कहा गया है कि 'ना जाने किस भेस में नारायण मिल जाएँ' । इसलिए हमारी श्रृद्धा कम नहीं होनी चाहिए, सिर्फ़ इसलिए की फल तुंरत नहीं दिखता है। अपने कर्मों पर ध्यान देकर उन्हें पूरे मन से करना चाहिए।

बुद्धिर्ज्ञानम सम्मोहः क्षमा सत्यम् दमः शमः।
सुखं दुखं भावोअभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोयाशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥ (अध्याय १०, श्लोक ४-५)

अर्थ: निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति -- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए हमें यही सोचना चाहिए कि हमारा एकमात्र अधिकार हमारे कर्मों पर है। भावनाएं और परिस्थियाँ तो भगवान् की दी हुई होती हैं और कर्मों के द्बारा ही हमें उन पर खरे उतरने का अवसर मिलता है।

* गीताप्रेस (http://www.gitapress.org/)

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