Saturday, February 23, 2008

Rahim on Love

'रहिमन' पैड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
बिलछत पांव पिपीलिको, लोग लदावत बैल॥


प्रेम की गली में कितनी ज्यादा फिसलन है! चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं इस पर। और, हम लोगों को तो देखो, जो बैल लादकर चलने की सोचते है! (दुनिया भर का अहंकार सिर पर लादकर कोई कैसे प्रेम के विकट मार्ग पर चल सकता है? वह तो फिसलेगा ही।)

'रहिमन' प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥

सराहना ऐसे ही प्रेम की की जाय जिसमें अन्तर न रह जाय। चूना और हल्दी मिलकर अपना-अपना रंग छोड़ देते है। (न दृष्टा रहता है और न दृश्य, दोनों एकाकार हो जाते हैं।)

कहा करौं वैकुण्ठ लै, कल्पबृच्छ की छांह।
'रहिमन' ढाक सुहावनो, जो गल पीतम-बाँह॥

वैकुण्ठ जाकर कल्पवृक्ष की छांहतले बैठने में रक्खा क्या है, यदि वहां प्रियतम पास न हो! उससे तो ढाक का पेड़ ही सुखदायक है, यदि उसकी छांह में प्रियतम के साथ गलबाँह देकर बैठने को मिले।

जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
'रहिमन' दाहे प्रेम के, बुझि-बुझिकैं सुलगाहिं॥

आग में पड़कर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने वाले प्रेमीजन बुझकर भी सुलगते रहते है। (ऐसे प्रेमी ही असल में 'मरजीवा' हैं।)

यह न 'रहीम' सराहिये, देन-लेन की प्रीति।
प्रानन बाजी राखिये, हार होय कै जीत॥

ऐसे प्रेम को कौन सराहेगा, जिसमें लेन-देन का नाता जुड़ा हो! प्रेम क्या कोई खरीद-फरोख्त की चीज है? उसमें तो लगा दिया जाय प्राणों का दांव, परवा नहीं कि हार हो या जीत!

'रहिमन' मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥

प्रेम का मार्ग हर कोई नहीं तय कर सकता। बड़ा कठिन है उस पर चलना, जैसे मोम के बने घोड़े पर सवार हो आग (पावक) पर चलना।

- Dohas provided by unknown friend

1 comment:

Anonymous said...

WAH BHAI WAH. AAPNE TO KAMAL KA CHIZ RAKHE HAIN NET PER. AAPKO HIRDAI SE DHANYAWAD DETA HUN. AAP JIYEN HAZARO SAAL.
ChunchunSingh