जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ॥ (उत्तरकाण्ड दोहा ४४)
जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से तरने का प्रयास नहीं करता है या जन्म-मरण के चक्र से छूटने का प्रयास नहीं करता है, वह कृतघ्न, निंदनीय और मंदमति है। वह आत्मा का हनन करता है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।
सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताय।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय॥ (उत्तरकाण्ड दोहा ४३)
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।
इसका अर्थ यह है कि इन तीनों पर दोष लगाना व्यर्थ है। श्री कृपालुजी महाराज कहते हैं...कि अपने दोष या दुर्भाग्य को काल (कि समय बुरा है), कर्म (कि पिछले जन्म का कर्मफल है) या ईश्वर (कि भगवान ने यह मुझसे बुरा करवाया है) पर लगाना बहुत बड़ी नासमझी है। ऐसे भ्रम में रहकर अकर्मण्य बने रहना अपने ही नाश का मार्ग है। (इस पर लेख 'प्रेम रस सिद्धांत' में उपलब्ध है)
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