Saturday, November 28, 2009

एक ख्याल बस यूँ ही...

आज बिस्तर पर लेटे लेटे मैं एक पिक्चर फ्रेम को देख रहा था जिसे मेरे पापा ने सजाया था। उसमें उन्होंने उस फ्रेम की बनावट के हिसाब से परिवार के सब लोगों की अलग अलग तसवीरें लगा दी थीं। हालाँकि उनका आकार अलग अलग था, लेकिन वह फिर भी अपने अनूठे अंदाज़ में एक थीं। देखते देखते मैं सोच रहा था कि कर्तव्य और प्रेम के कितने पावन धागे से इस परिवार के सदस्य आपस में बंधे हुए हैं। शरीर हो न हो, कर्तव्य और उसके ऋण हमेशा रहते हैं। इन्हीं ख्यालों में दोपहर के आराम का वक्त निकल गया।

वक्त बीतते वक्त नहीं लगता। जैसे बचपन से जवानी आयी, वैसे ही बुढ़ापा भी आएगा। यह तो एक अटल सत्य है। मानव शरीर पाना ही एक बहुत दुर्लभ संयोग है। इसमें अगर अच्छी संगत भी मिले, तो क्या कहने। बहुत भाग्य से ऐसी बुद्धि मिलती है जो हमेशा धर्म के रास्ते पर ले चले। यहाँ पर भटकने में वक्त नहीं लगता। कलियुग की दास्ताँ ऐसी ही है कि धर्म की बातें वही पुरानी हैं, लेकिन अर्थ बदल गया है अपनी सुविधानुसार। वह जीवनमूल्य जो रघुकुल ने समाज को दिए थे, उनको अपनाने का साहस आजकल बहुत कम में होता है। कर्तव्यों की परिभाषा को भी लोगों ने बदल लिया है। कौन सा लक्ष्मण, कौन सी सीता, कौन से दशरथ, कौन सी गीता। संतोष, धीरज और बलिदान अब केवल तिरंगे की पट्टियों पर ही दिखते हैं। उनके अर्थ को समझने और उनका उदाहरण प्रस्तुत करने वाले गुरु बिरले ही मिलते हैं। मेरे माता-पिता के आजीवन त्याग, धैर्य और संतोष से इन्हीं जीवनमूल्यों का उदहारण देखते हुए मुझे अपने ऋणों का अहसास प्रतिदिन होता है।

सोचता रहा कि सभी की बची जिंदगी में उस ऋण को चुकाने का सबसे अच्छा उपाय कौन है। सारे बुद्धि के किनारों को टटोलने के बाद भी मुझे एक ही रास्ता दिखाई पड़ा, वह है सेवा का। उनकी खुशी में मेरा कितना आनंद है, शायद उन्हें भी नहीं पता। लेकिन सच्चा सुख इस सरल सेवामय जीवन के अलावा मैं अभी तक और तो कहीं ढूंढ नहीं पाया...

2 comments:

भंगार said...

बहुत सुन्दर बात कही आप ने …॥इतना कुछ आप

इतनी जल्दी जान गये

भंगार said...

बहुत सुन्दर लिखा आप ने