Saturday, September 5, 2009

सहिष्णुता

सहिष्णुता का अर्थ है, सहनशीलता। यह एक ऐसा अनमोल गुण है, जिसको पाकर मनुष्य बडे से बडे लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। किसी भी स्थिति को बिगाड़ लेना हमारे स्वाभिमान के लिये बहुत आसान है। लेकिन सहिष्णुता हमको यह दिखाती है कि हमारे लिये क्या आवश्यक है, स्वाभिमान की जीत या हमारा अन्तिम लक्ष्य। सहनशीलता के लिये जरूरी है कि हम बहुत से और जीवन मूल्यों को पहले सीखें, जैसे सन्तोष, विवेक और धीरज। सहनशील होना कमजोर होना बिल्कुल नहीं है। यह तो हमारी अपनी परिपक्वता की पहचान है। रहीम दास जी कहते हैं…

जैसी परै सो सहि रहे, कहि 'रहीम' यह देह।
धरती ही पर परग है, सीत, घाम औ' मेह॥

जो कुछ भी इस देह पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए । जैसे, जाड़ा, धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है ।

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इसी श्रंखला में युवाचार्य महाश्रमण जी का एक प्रवचन मैं नीचे लिखता हूँ। आप भी उसका आनन्द लीजिये…

सहना सुखी जीवन की एक अनिवार्य अपेक्षा है। जो सहना जानता है, वही जीना जानता है। जिसे सहना नहीं आता वह न तो शांति से स्वयं जी सकता है और न अपने आसपास के वातावरण को शांतिमय रहने देता है। जहां समूह है, वहां अनेक व्यक्तियों को साथ जीना होता है। जहां दूसरे के विचारों को सुनने, समझने, सहने और आत्मसात करने की क्षमता नहीं होती, वहां अनेक उलझनें खड़ी हो जाती हैं। जितने भी कलह उत्पन्न होते हैं, चाहे वे पारिवारिक हों या सामाजिक, उनके मूल में एक कारण असहिष्णुता है।

मनुष्य में दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो नैसर्गिक रूप से शांत प्रकृति वाले होते हैं, उनके सामने कितनी ही प्रतिकूल स्थिति क्यों न उत्पन्न हो जाए, उनके साथ कैसा भी अप्रिय व्यवहार क्यों न हो जाए, वे प्राय: कुपित नहीं होते। ऐसे व्यक्ति परिवार और समाज के लिए आदर्श होते हैं। हर व्यक्ति उस आदर्श तक न भी पहुंच सके, पर अभ्यास और दृढ़ संकल्प के द्वारा व्यक्ति अपनी आदत को परिष्कृत और परिमार्जित कर सकता है।

मनुष्य के पास शरीर है, वाणी है और मन है। जैन दर्शन की भाषा में इन तीनों की प्रवृत्ति को योग कहा जाता है। इन तीनों का आलंबन लिए बिना शुभ या अशुभ कोई भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। सहनशीलता और असहनशीलता की अभिव्यक्ति का संबंध शरीर, वाणी और मन तीनों के साथ है।

सबसे पहले हम शरीर को लें। कुछ व्यक्ति शरीर से बहुत कठोर श्रम कर लेते हैं, कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो थोड़े से श्रम से भी थकान का अनुभव करने लगते हैं। किसान खेतों में काम करते हैं। वे न धूप की परवाह करते हैं, न छांह की। फिर भी वे स्वस्थ रहते हैं। इसके विपरीत जो एयरकंडीशंड कमरों में रहने के अभ्यस्त हैं, वे मौसम के जरा सा प्रतिकूल होते ही बेचैन हो जाते हैं। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ अंशों में अभ्यास की विभिन्नता भी एक कारण बनती है। शरीर को जिस स्थिति और जिस वातावरण में रखा जाता है, वह वैसा ही बन जाता है। मौसम बदलता रहता है। शरीर हर मौसम को झेल सके, ऐसा अभ्यास होना चाहिए। सर्दी के दिनों में कुछ संत जुकाम के भय से गले पर कपड़ा बांध लेते। आचार्य तुलसी कहते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है। कपड़ा बांधकर रखने से गले का ठंडक झेलने का अभ्यास छूट जाता है। प्रतिरोधात्मक शक्ति कम हो जाती है। फिर थोड़ी-सी ठंडी हवा गले को लगी नहीं कि गला खराब हो जाता है। ऐसा देखा भी जाता है कि जो जितना अधिक ठंडक या गर्मी का बचाव करते हैं, वे उतना ही सर्दी-गर्मी से अधिक प्रभावित होते हैं।

शरीर की तरह मन को भी सहने का अभ्यास होना आवश्यक है। मानसिक असहिष्णुता ही तनाव, घुटन, कुंठा, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता आदि को जन्म देती है। जहां मन की असहिष्णुता चरम सीमा पर पहुंच जाती है, वहां आत्महत्या, परहत्या जैसी जघन्य घटनाएं घट जाती हैं। वर्तमान युग में असहिष्णुता की दर बढ़ती जा रही है। एक छोटा बच्चा भी तनाव की भाषा समझने लगा है। एक बहन ने बताया- मेरा लड़का पांच वर्ष का है। पढ़ाई कर रहा है। उस समय यदि उसे एक गिलास पानी लाने को बोल दूं तो कहेगा- मम्मी! मुझे डिस्टर्ब मत करो। मुझे टेंशन हो जाता है। मानसिक असहिष्णुता आपसी मैत्री की सरिता को सुखा देती है। पिता-पुत्र, सास-बहू व देवरानी-जेठानी के झगड़ों की तो बात क्या, पति-पत्नी के रिश्तों के बीच भी दरारें पड़ जाती हैं। आवश्यक है, मानसिक सहिष्णुता का विकास हो।

सहिष्णुता का एक प्रकार है वाणी की सहिष्णुता। जो व्यक्ति वाणी पर अंकुश रखना जानता है, वह असत्य भाषण से तो बचता ही है, आवेश और उत्तेजनापूर्ण भाषा पर भी नियंत्रण कर लेता है। वह कठोर भाषा नहीं बोलता। भाषा का असम्यक प्रयोग संबंधों में दूरियां बढ़ाती है। चिंतन और विचारपूर्ण व्यक्ति अपनी जबान को अपने वश में कर सकता है।

इस तरह शरीर, मन और वचन इन तीनों योगों को साध लिया जाए तो सहिष्णुता का गुण स्वत: विकसित हो जाएगा। सहिष्णुता का विकास आपकी चेतना में शांति और आनंद का अवतरण करने वाला सिद्ध होगा।

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