Monday, September 28, 2009

विवेक और ज्ञान

आजकल की रंग बिरंगी दुनिया में लोग खो जाते हैं अनजानी दौड़ में। उसका थोड़ा कारण अपना विवेक न होना भी होता है। पुराने जमाने में पढ़ाई के साथ-साथ चरित्र की बातों पर भी जोर दिया जाता था। आजकल इन बातों को सीखने के समय को टीवी ने ले लिया है। ज्ञान मिलना ही काफ़ी नहीं होता है, उस ज्ञान का इस्तेमाल कब, कैसे, कहाँ और क्यों करना है, यह हमारा विवेक हमको बताता है।

खासकर जहाँ पर तौलने के पैमाने बदल जाते हैं, वहां चूक होना बहुत आसान होता है। जैसे दो अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों की तुलना करना किसी पर्यटक के लिए कठिन हो सकता है। अमीर देशों के कर्मों से निचले दर्जे के नागरिक भी देखने में सभ्य, स्वभाव और बातों में जोरदार लगते हैं, किंतु उनमें फर्क संस्कृति को समझने के बाद ही पता चलता है। मानव स्वभाव में एक कमजोरी झुंड में चलने की होती है। यह आदत तो हमारे उत्पत्ति से ही हमारे अंदर होती है। लेकिन हम अपने ज्ञान को सामने रखकर किसी भी स्थिति में कैसे उपाय करें, यह हमारे संस्कार और विवेक हमें दिखलाते हैं। जीवन में अनुभव धीरे धीरे ही आता है। इसीलिए हमारा विवेक कितना परिपक्व हुआ है, इसका पता परिस्थितियों के आने पर ही लगता है। विवेक में निखार हमारे अपने खुलेपन से आता है, सीखने की चाहत और दृढ़ विश्वास की जरुरत होती है।

कबीर दास जी कहते हैं...
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त॥

जब किसी की विवेक की आँख फूट जाती है, अर्थात विवेक नहीं रह जाता है, तब उसको संत और असंत में फर्क नहीं मालूम पड़ता है। जिसके साथ भी १०-२० लोग दिखाई पड़ते हैं, वह उसीको महंत मानने लगता है।

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