मन का विश्वास एक ऐसी अपार शक्ति है जिससे बड़े बड़े चमत्कार हो जाते हैं। चाहे कोई रोग हो, चाहे कितनी भी कठिन जीवन-स्थिति हो या फिर पर्वत से भी ऊँचे लक्ष्य हों। सब हमारे विश्वास के आगे छोटे पड़ जाते हैं। विश्वास के साथ चाहिए हमको -- दृढ़ संकल्प, अटूट श्रद्धा और फिर से उठ खड़े होने की क्षमता। थोडी से बातों से विश्वास डगमगा जाना तो बहुत ही मामूली है। अगर यह आपके साथ होता है, तो इसमें कोई ख़राब बात नहीं है। यह तो प्रकृति ने सभी जीवों को दिया है, जो उन्हें अपना प्राथमिक लक्ष्य (जो कि जीवित रहना है) पूरा करने में मदद करता है। किसी भी कठिनाई (या जानलेवा परिस्थिति) के लिए शरीर का पहला जवाब उससे दूर भागना होता है। वैसे सामान्य परिस्थितियों से जीव चार तरीके से निपटता है, उनपर -- विजय पाकर, स्वीकार करके, परहस्त करके (दूसरे को देकर), या टालकर। कठिन परिस्थितियां हमें मजबूर कर सकतीं हैं, आसान राह लेने के लिए या अपनी शक्तियों की पहचान करके विश्वास के साथ कठिन राह लेने के लिए।
विश्वास एक ऐसा गुण है जो हमको बहुत प्रयत्न से मिलता है। भगवान सभी को सब कुछ इसीलिए नहीं देता है क्योंकि वह देखना चाहता है कि लेने वाले में कितनी चाहत है लेने की। विश्वास की डोर जितनी मजबूत होगी, हमें सफलता भी उतनी अधिक मिलेगी। जैसे आप रोगी को कितनी भी दवाएं खिला दें, उसको फायदा नहीं होगा जब तक उसका उन दवाओं पर विश्वास नहीं होगा। विश्वास जो शंका से भरा हुआ है, वह मजबूत नहीं हो सकता क्योंकि उसमें पूरी श्रद्धा नहीं हो सकती। लाखों लोग मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे वगैरह जाकर पूजा करते हैं, लेकिन आज तक भगवान को किसी ने नहीं देखा। कबीर दास जी कहते हैं... "ना काबे में, ना कैलाश में। मोको कहाँ तू ढूंढें रे बन्दे, मैं तो तेरे विश्वास में।" तुलसीदास जी ने भी कहा है..."सातवाँ सम मोहि मय जग देखा।" इसका अर्थ है कि (नवधा भक्तियों में सातवें प्रकार की) भक्ति सारे जगत को राममय देखने से होती है कि भगवान इस जगत के सारे जीवों में ही हैं और हम यह विश्वास रखकर ही भक्ति करें। इसका सारांश यही है कि, सर्वत्र और हमारे विश्वास में साक्षात भगवान का वास होता है। वहीँ से उनकी प्रेरणा आती है, जो हमें जीवन मार्ग दर्शन देती है।
विश्वास जीवन के रिश्तों को भी मधुर बना देता है। रिश्तों में भी हमारा पहला ध्यान सबसे बड़े लक्ष्य पर ही होना चाहिए। सबसे छोटी बातों को तो नजरअंदाज़ कर देना चाहिए क्योंकि इससे अपनी ही शान्ति चली जाती है। बुद्ध धर्म में भी कहा गया है कि क्रोध का सबसे बड़ा नुकसान ख़ुद को ही होता है, क्योकि वह अंदर ही अंदर आपको जला देता है, चाहे आप स्वीकार न भी करो। जब भृगु ऋषि ने विष्णु जी को लात मारकर जगाया था, तब विष्णु जी ने पहले पूछा कि ऋषि के पैर में चोट तो नहीं लगी। इस सुंदर उदहारण से दिखता है कि, गुस्से का कारण भले ही अपने हाथ में न हो , लेकिन हमारी अपनी प्रतिक्रिया हमेशा अपने हाथ ही होती है। इस बात पर कभी गौर फरमाइयेगा। जब हमारा ध्यान सबसे बड़े लक्ष्य पर होता है, तब हमको अर्जुन की तरह सिर्फ़ चिड़िया की आँख ही दिखाई देती है और हम दुनिया के बाकी छोटे-बड़े भुलावों को नहीं देख पाते। मेरी पसंदीदा फ़िल्म राजेश खन्ना वाली 'बावर्ची' में इस चीज को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। जब हम कोई भी अपेक्षा न रखकर दूसरों को सच्चा प्यार देने लगते हैं, तब हमको दूसरों से भी वही प्यार वापस मिलने लगता है। इसमें भी विश्वास का एक अटूट बंधन है कि हमको प्यार मिलकर ही रहेगा। गाँधी जी के सत्याग्रह और अहिंसा के मार्ग पर भी उनका यही दृढ़ विश्वास था कि समय जरुर लगेगा, लेकिन जीत उनके विश्वास की ही होगी। यही लगन है जो हारे हुए को भी हार मानने नहीं देती। अब्राहम लिंकन जिंदगी भर हारते रहे, लेकिन शायद उनको जिंदगी हार मानना सिखाना ही भूल गई थी और अंत में वे राष्ट्रपति बने। मान लें कि आपका अपना भाग्य आपके हाथ में नहीं होता, लेकिन आपका अपना संकल्प अपने हाथ जरुर होता है। इसलिए, अभ्यास कीजिये कि आप अपने विश्वास को इस कदर मजबूत बना लें कि वह भगवान भी आप की इस लगन पर मुस्कुरा दे।
No comments:
Post a Comment